Manuscripts ~ Reports: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
mNo edit summary |
mNo edit summary |
||
Line 211: | Line 211: | ||
| D-8 || [[image:man1119.jpg|200px]] || [[image:man1119-2.jpg|200px]] || || | | D-8 || [[image:man1119.jpg|200px]] || [[image:man1119-2.jpg|200px]] || || | ||
|- | |- | ||
| E-1 || [[image:man1120.jpg|200px]] || [[image:man1120-2.jpg|200px]] || || | | E-1 || [[image:man1120.jpg|200px]] || [[image:man1120-2.jpg|200px]] || | ||
:<u>समाचार विभाग</u> | |||
:धर्म चक्र प्रवर्तन : | |||
:आचार्यश्री के देशव्यापी कार्यक्रम | |||
: "खोजो स्वतंत्रता | और फिर स्वतंत्र चित्त में सत्य चला आता है, जैसे सागर में सरिताओं का गिरना|" | |||
:श्रीरामपुर में सत्संग | |||
:आचार्यश्री 4, 5 और 6 फ़रवरी के लिए श्रीरामपुर पधारे | ये तीन दिन श्रीरामपुर के प्रबुद्ध नागरिकों के लिए अविस्मरणीय हो गये हैं | आचार्यश्री ने यहाँ कहा : "सत्य के मार्ग की यात्रा केवल वे ही कर सकते हैं, जो की स्वतन्त्र हैं | स्वतन्त्र चित्त ---समस्त परंपराओं, संस्कारों और विचारों से स्वतंत्र चित्त ही वस्तुतः वह मार्ग है, जो की सत्य तक ले जाता है | स्वतंत्रता ही सत्य का द्वार है | स्वतंत्रता ही सत्य है | इसलिए मैं कहता हूँ कि सत्य मत खोजो | सत्य तो स्वतः आता है | खोजो स्वतंत्रता | लेकिन हम तो .परतंत्रता खोजते हैं और साथ ही सत्य भी चाहते हैं | यह असंभव है, एसा कभी नहीं हो सकता है | क्योंकि, जहाँ स्वतंत्रता ही नहीं है, वहाँ तो अज्ञात की यात्रा ही प्रारंभ नहीं होती है | परतन्त्र चित्त यानी ज्ञात से बँधा चित्त | स्वतन्त्र चित्त यानी ज्ञात से मुक्त चित्त | और निश्चय ही जो ज्ञात से बँधा है, वह अज्ञात को कैसे जान सकता है ? जबकि सत्य अज्ञात है और परमात्मा अज्ञात है | अज्ञात को पाने के लिए ज्ञात को छोड्ना पड़ता है | और यही है सबसे बड़ा साहस | क्योंकि ज्ञात मैं सुरक्षा है | क्योंकि ज्ञात परिचित है और अज्ञात अपरिचित | इसी परिचय और इसी सुरक्षा के कारण मनुष्य स्वयं ही अपनी ज़ंजीरों को मजबूत करता रहता है | जबकि चाहिए मजबूती फिर अपरिचित और अनजान में प्रवेश का साहस | एसा साहस की साधना बनता है | फिर एसे साहसी व्यक्ति को ही में धार्मिक कहता हूँ | साहस करो, स्वतंत्र बनो फिर सत्य को पा लो | सत्य तो सदा द्वार पर खड़ा है, लेकिन हममें आँखें खोलकर उसे देखने का साहस ही नहीं है | परमात्मा तो निकट है, लेकिन हम स्वयं की निर्मित परतंत्रताओं में ही बँधे हैं फिर उसकी ओर एक इंच भी यात्रा करने में असमर्थ हैं |" | |||
|| | |||
|- | |- | ||
| E-2R || [[image:man1122.jpg|200px]] || [[image:man1122-2.jpg|200px]] || || | | E-2R || [[image:man1122.jpg|200px]] || [[image:man1122-2.jpg|200px]] || | ||
:"स्वयं से भागो नहीं, जागो | क्योंकि भागने में स्वयं में जो शून्य है, वही जागने से पूर्ण बन जाता है |" | |||
:<u>बारामती में प्रवचन</u> | |||
:आचार्यश्री 7 जनवरी को बारामतीपधारे | उन्होंने कहा : "मनुष्य के जीवन की मूल समस्या क्या है ? वह पहेली कौन सी है जिसमें उलझ कर अधिक लोग स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं ? ओर जो इस मूल समस्या को बिना जाने ही जीवनचक्र पर चल पड़ता है, निश्चय ही वह यदि भटक जाता हो तो कोई आश्चर्य नहीं है | ओर दुर्भाग्य से अधिक लोग जीवनभर भागते हैं, दौड़ते हैं, ओर गिरते हैं फिर समाप्त भी हो जाते हैं, बिना यह जाने कि वे क्यों दौड़ रहे थे ? ओर क्या कर रहे थे ? क्या आपको उस मूल समस्या का बोध है ? क्या आप उसके प्रति सचेत हैं ? नही | नहीं | ज़रा भी नहीं | अन्यथा आज दुखी ना होते, अन्यथा आप जीवन को एक बोझ की भाँति ना ढोते | क्योंकि जो उस समस्या को जान लेता है, वह उसे हल भी कर लेता है | इसे ठीक से जान लेना ही इसका समाधान भी है | वह समस्या यह है कि वह भीतर खाली और रिक्त है | एक अभाव उसे स्वयं के प्राणों में अनुभव होता है | इस अभाव को, इस रिक्तता को, ओर अकेलेपन को भरने के लिए ही वह दौड़ता फिरता है | धन की, यश की, पद की, सारी खोजें इसी अभाव को भरने के लिए हैं | लेकिन सब पाकर भी पाया जाता है कि वह खाली का खाली है | और यही विफलता ---- यही अनिवार्य विफलता उसे जीते जी मुर्दा बना देती है | यह विफलता अनिवार्य है क्योंकि अभाव है उसके भीतर और जिससे वह भरना चाहता है, वह सब है उसके बाहर | और आंतरिक रिक्तता बाह्य संपदा से कैसे भर सकती है ? इसलिए बाहर संपत्ति का ढेर लग जाता है और भीतर की विपत्ति उससे अधूरी ही रह जाती है | और संपदा के ढेर में भी मनुष्य स्वयं को रिक्त ही पाता है | यह विफलता मनुष्य को त्याग ओर तप आदि कर्म की ओर भी ले जा सकती है | लेकिन वे भी बाहर ही हैं और वे भी व्यर्थ हैं | वस्तुतः सवाल कहीं धन में, | |||
|| | |||
|- | |- | ||
| E-2V || [[image:man1123.jpg|200px]] || [[image:man1123-2.jpg|200px]] || || | | E-2V || [[image:man1123.jpg|200px]] || [[image:man1123-2.jpg|200px]] || | ||
:या धर्म में भागने का नहीं है | सवाल है स्वयं में जागने का | अभाव क्या है ?---- रिक्तता क्या है ?------यह स्वयं में जो शून्यता है, वह क्या है ? इसे जाने बिना जो मानता है , वह तो बाहर ही भागेगा क्योंकि वह तो भीतर से भयभीत जो है | यहि उसकी मती, गति स्वयं से पलायन ही होगी | जबकि स्वयं से कोई कैसे भाग सकता है ? स्वयं का होना यदि शून्यता भी है तो भी उससे भागा नहीं जा सकता है | वह जो भी है, वही है | उससे भागना असंभव होता है | क्योंकि, स्वयं के प्रति जागते ही पाया जाता है कि जो शून्य जैसा प्रतीत होता था , वह तो पूर्ण है | पूर्ण के प्रति जिद्द हो तो वह शून्य है, यदि शून्य के प्रति भरेंगे तो वही पूर्ण है | शून्य और पूर्ण एक ही सत्य के दो अनुभव हैं | निद्रा में पूर्ण शून्य मालूम होता है और जागरण में शून्य पूर्ण हो जाता है |"|| | |||
|- | |- | ||
| E-3 || [[image:man1124.jpg|200px]] || [[image:man1124-2.jpg|200px]] || || | | E-3 || [[image:man1124.jpg|200px]] || [[image:man1124-2.jpg|200px]] || | ||
:"आत्मघात या आत्मक्रांति -----मनुष्यता के लिए उपस्थित बस ये दो ही विकल्प हैं|" | |||
:<u>बारामति साइंस कालेज में उदबोधन</u> | |||
:7 फ़रवरी की दोपहर आचार्यश्री ने बारामति साइंस कालेज के विद्यार्थियों को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मनुष्य का अतीत अत्यंत हिंसा, क्रूरता आदि अज्ञान से भरा रहा है | 5 हज़ार वर्षों में 15 हज़ार युद्ध हुए हैं | और आश्चर्य तो यह है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण अतीत से हमने अबतक कोई भी सीख नहीं ली है | मनुष्य वैसा का वैसा ही है | उसमें कोई मौलिक क्रांति नहीं हुई है | लेकिन अब या तो मनुष्य को आमूलतः बदलना होगा या मनुष्य की जाति ही नष्ट हो जाएगी क्योंकि विज्ञान ने एसी शक्ति उसके हाथों में रख दी है कि वह हिंसक रहकर आज आत्मघात से नहीं बच सकता है | आत्मघात या आत्मक्रांति---बस आज ये दो ही विकल्प मनुष्यता के लिए हैं | आत्मक्रांति से मेरा क्या अर्थ है ? शरीर के तल पर मनुष्य ने भलीभाँति जीकर देख लिया है | इस जीवन में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है | और इस जीवन की पुर्णाहुति होती है, मृत्यु में | और स्मरण रहे कि जो दुख में जीता है और मृत्यु में समाप्त होता है, वह दूसरों के लिए भी दुख बन जाता है, और मृत्यु बन जाता है | इससे ही इतनी हिंसा हैं, इतने युद्ध हैं, इतनी शत्रुता है | शरीर में ही जीवन को समाप्त मान लेने का यह स्वाभाविक परिणाम है | लेकिन एक और जीवन भी है | आत्मा का जीवन भी है | जो स्वयं की चेतना के केंद्र को खोजता है ओर उसे पाकर उसके लिए मृत्यु नहीं है | उसे न जानने से ही मृत्यु का भ्रम पैदा होता है | और जो उसे जान लेता है उसके लिए फिर मृत्यु मिट जाती है | निश्चय ही उसे जानना समस्त दुखों और पीड़ाओं के उपर उठ जाना है क्योंकि वह भोक्ता नहीं है | वह तो बस ज्ञाता है | और जो स्वयं दुख के बाहर हो जाता है, वह किसी को भी दुख देने में असमर्थ हो जाता है | एसी चित्त की दशा ही अहिंसा है | उससे तो प्रेम बहता है क्योंकि वह प्रेम है | उससे तो आनंद बहता है क्योंकि वह आनंद है | उससे तो अमृत बहता है क्योंकि वह अमृत है |” | |||
|| | |||
|- | |- | ||
| E-4R || [[image:man1125.jpg|200px]] || [[image:man1125-2.jpg|200px]] || || | | E-4R || [[image:man1125.jpg|200px]] || [[image:man1125-2.jpg|200px]] || | ||
:______________________________________ | |||
:8 फ़रवरी दोपहर कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर में प्रवचन | |||
:______________________________________ | |||
:<u>मंडला में विशाल जनसभा</u> | |||
:आचार्यश्री 21 फ़रवरी की संध्या मंडला पधारे | रात को उन्होंने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मैं प्रेम के अतिरिक्त और किसी प्रार्थना को नहीं जानता हूँ | और मै कहता हूँ कि जो प्रेम में समग्रतः प्रविष्ट हो जाते हैं, वे परमात्मा को भी पा लेते हैं | लेकिन प्रेम को पाने के लिए स्वयं को खोना पड़ता है | क्योंकि अह्न्कार की चट्टान के अतिरिक्त प्रेम के झरने को रोकने में और क्या बाधा है ? प्रेम तो प्रत्येक के हृदय में भरा है, लेकिन अहंकार द्वार को रोके हुए है | अहंकार को छोड़ो यदि प्रेम को पाना है तो | और प्रेम तो आवश्यक है यदि परमात्मा को पाना है | अहंकार अंधकार है | परमात्मा आलोक | अहंकार परतंत्रता है | परमात्मा स्वतंत्रता है | और अहंकार से, अंधकार से, परतंत्रता से जो परमात्मा तक, प्रकाश तक, परममुक्ति तक जाना चाहता है, उसके लिए मार्ग क्या है ? उसके लिए प्रेम मार्ग है | प्रेम और प्रेम और प्रेम | प्रेम ही जीवन है | प्रेम ही प्रार्थना | और अंततः प्रेम ही परमात्मा है | लेकिन हम प्रार्थनाएँ भी करते हैं, और परमात्मा के मंदिरों में मनुष्य निर्मित मंदिरों की परिक्रमाएँ भी करते हैं, पर प्रेम में हमारे हृदय बिल्कुल शून्य हैं | इसलिए न हमारी प्रार्थनाओं का कोई मूल्य है और न हमारे परमात्माओं का | उल्टे वे और भी मनुष्य को मनुष्य से तोड़ते जाने का कारण बन गये हैं | और क्या जो मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता हो, वह कभी उसे परमात्मा से भी जोड़ सकता है ? प्रेम के अतिरिक्त और कोई कर्म नहीं है | क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त स्वयं और समग्र के बीच और कोई सेतु नहीं है | प्रार्थनाएँ छोड़ो और प्रेम करो | परमात्मा को छोड़ो और प्रेम करो | और अंततः पाओगे कि प्रार्थना पूरी हो गयी है और || | |||
|- | |- | ||
| E-4V || [[image:man1126.jpg|200px]] || [[image:man1126-2.jpg|200px]] || || | | E-4V || [[image:man1126.jpg|200px]] || [[image:man1126-2.jpg|200px]] || | ||
:परमात्मा स्वयम् ही उपलब्ध हो गया है |” | |||
|| | |||
|- | |- | ||
| E-5R || [[image:man1127.jpg|200px]] || [[image:man1127-2.jpg|200px]] || || | | E-5R || [[image:man1127.jpg|200px]] || [[image:man1127-2.jpg|200px]] | ||
:"ज्ञान के लिए पराए ज्ञान से मुक्ति आवश्यक | क्योंकि जो स्वयं का नहीं, वस्तुतः वह ज्ञान ही नहीं है |" | |||
:<u>आणंद में प्रवचन</u> | |||
:आचार्यश्री 3 मार्च को आणंद पधारे | आणंद के प्रबुद्ध नागरिकों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा : "सत्य शब्दों से नहीं पाया जा सकता है | इसलिए वह किसी और से भी नहीं पाया जा सकता है | सत्य है स्वानुभूति | उसे तो स्वयं में और स्वयम् ही जानने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है | लेकिन हम सत्य को खोजते हैं, शास्त्रों में, शब्दों और सिद्धांतों में | और इस भाँति पाया गया ज्ञान, ज्ञान तो नहीं बनता, विपरीत ज्ञान के लिए अवरोध बन जाता है | क्योंकि जो व्यक्ति जितना अधिक तथाकथित ज्ञान से आबद्ध हो जाता है, वह उतना ही स्वयं के ज्ञान को पाने में असमर्थ हो जाता है | वह दिशा ही उसे विस्मृत हो जाती है | वह उधार और पराए ज्ञान को अपना मानकर ही तृप्त हो जाता है, इसलिए उसके स्वयं के ज्ञान की मौलिक शांति के जागने का अवसर ही खो जाता है | वह स्मृति के और स्मृति में संगृहीत सूचनाओं को ही ज्ञान मान लेता है और परीणाम स्वरूप सदा के लिए ही उस ज्ञान से वंचित रह जाता है जो की ज्ञान है | इसलिए मैं कहता हूँ कि सत्य की खोज में सबसे पहले तो यही है कि इस ज्ञान से मुक्त हो जावें जो कि हमारा नहीं है | क्योंकि तभी हमारी खोज ज्ञान के उस आयाम में प्रारम्भ होती है जो कि स्वयं में ही सोया हुआ है | और वहीं, उसी आलोक में जो की स्वयं की चेतना से अवीरभूत होता है, सत्य है और वही परमात्मा है |" | |||
:"विचार को जगाओ | और विश्वासों से बचो | क्योंकि विश्वास अन्धेपन में ले जाते हैं|" | |||
:<u>सरदार पटेल विश्वविद्यालय, आणंद में प्रवचन</u> | |||
:आचार्यश्री ने 3 मार्च की दोपहर सरदार वल्लभभाई पटेल विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच अपने विचार प्रकट किए | उन्होंने कहा : "विचार को जगाओ | सम्यक तर्क को जगाओ | और विश्वास से बचो | क्योंकि विश्वास अन्धेपन में ले जाता है | मनुष्य | |||
|| | |||
|| | |||
|- | |- | ||
| E-5V || [[image:man1128.jpg|200px]] || [[image:man1128-2.jpg|200px]] || || | | E-5V || [[image:man1128.jpg|200px]] || [[image:man1128-2.jpg|200px]] || || |
Revision as of 03:27, 6 March 2018
Reports of Nation-Wide Programmes of Acharya Shri
- year
- A: 7 - 22 Apr 1968
- B: 5 May - 29 Jul 1968
- C: 2 Aug - 20 Sep 1968
- D: 11 Nov 1968 - 18 Jan 1969
- E: 4 Feb - 2 Apr 1969
- notes
- 69 pages in groups A to E.
- A: 4 sheets
- B: 13 sheets plus 10 written on reverse
- C: 17 sheets
- D: 8 sheets plus 2 written on reverse
- E: 9 sheets plus 7 written on reverse
- Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".