Manuscripts ~ Reports: Difference between revisions
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:बंबई, सी. जे. हॉल में प्रश्नोत्तरी: | :बंबई, सी. जे. हॉल में प्रश्नोत्तरी: | ||
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:आचारयाश्री. के सान्निध्य में 13, 14, 15 मई को यहाँ सत्संग आयोजित हुआ | इस अवसर पर दमोह की प्रबुद्ध जनता ने अपूर्व आनंद अनुभव किया | एक क्रांति की लहर ही जैसे फैल गई | आचार्याश्री ने यहाँ कहा : " मैं ज्ञान से मुक्ति के लिए प्रार्थना करने आया हूँ | क्योंकि, वह ज्ञान जो हम दूसरों से सीख लेते हैं, उस ज्ञान के जन्म में अवरोध बन जाता है, जो कि कभी सीखा नहीं जाता है वरन स्वयं में ही आविर्भूत होता है | आत्मज्ञान के लिए सीखे हुये ज्ञान के बोध से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है | क्योंकि वही अज्ञान की शरणस्थली है | अज्ञान सीखे हुये ज्ञान में ही छिपकर स्वयं को बाधक होता है | इसलिए मिथ्याज्ञान अज्ञान से भी ज़्यादा आत्मघाती है | एसे ज्ञान को कचरे की भाँति स्वयं से बाहर फेंक दें | उससे निर्भार हो जावें तो हम फिर उन पर्वतों की यात्रा की जा सकती है जहाँ कि ज्ञान का सूर्य जीवन के शिखरों पर स्वर्ण आलोक की वर्षा कर रहा है | " | :आचारयाश्री. के सान्निध्य में 13, 14, 15 मई को यहाँ सत्संग आयोजित हुआ | इस अवसर पर दमोह की प्रबुद्ध जनता ने अपूर्व आनंद अनुभव किया | एक क्रांति की लहर ही जैसे फैल गई | आचार्याश्री ने यहाँ कहा : " मैं ज्ञान से मुक्ति के लिए प्रार्थना करने आया हूँ | क्योंकि, वह ज्ञान जो हम दूसरों से सीख लेते हैं, उस ज्ञान के जन्म में अवरोध बन जाता है, जो कि कभी सीखा नहीं जाता है वरन स्वयं में ही आविर्भूत होता है | आत्मज्ञान के लिए सीखे हुये ज्ञान के बोध से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है | क्योंकि वही अज्ञान की शरणस्थली है | अज्ञान सीखे हुये ज्ञान में ही छिपकर स्वयं को बाधक होता है | इसलिए मिथ्याज्ञान अज्ञान से भी ज़्यादा आत्मघाती है | एसे ज्ञान को कचरे की भाँति स्वयं से बाहर फेंक दें | उससे निर्भार हो जावें तो हम फिर उन पर्वतों की यात्रा की जा सकती है जहाँ कि ज्ञान का सूर्य जीवन के शिखरों पर स्वर्ण आलोक की वर्षा कर रहा है | " | ||
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:आचार्याश्री. 20, 21, 22, 23 मई के लिए बंबई आये | उनके सान्निध्य में एक विराट सत्संग क्रास मैदान में आयोजित हुआ | हज़ारों पीपासुओं ने उनकी कान्तिमयी वाणी सुनी और लाभान्वित हुए | वे तो अपने साथ सदा क्रांति का एक उद्घोष लिए ही चलते हैं | उन्होंने यहाँ कहा : " जीवन निद्रा नहीं है | लेकिन, हम उसे सोए सोए ही खो देते हैं | इसलिए मैं कहता हूँ कि सत्य तो सभी को मिलता है लेकिन जीवन नहीं | जीवन तो केवल वे ही उपलब्ध | :आचार्याश्री. 20, 21, 22, 23 मई के लिए बंबई आये | उनके सान्निध्य में एक विराट सत्संग क्रास मैदान में आयोजित हुआ | हज़ारों पीपासुओं ने उनकी कान्तिमयी वाणी सुनी और लाभान्वित हुए | वे तो अपने साथ सदा क्रांति का एक उद्घोष लिए ही चलते हैं | उन्होंने यहाँ कहा : " जीवन निद्रा नहीं है | लेकिन, हम उसे सोए सोए ही खो देते हैं | इसलिए मैं कहता हूँ कि सत्य तो सभी को मिलता है लेकिन जीवन नहीं | जीवन तो केवल वे ही उपलब्ध | ||
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:मनुष्यता किसी बड़ी दुर्घटना के करीब है, | :मनुष्यता किसी बड़ी दुर्घटना के करीब है, | ||
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| B-4R|| [[image:man1075.jpg|200px]] || [[image:man1075-2.jpg|200px]] || | | B-4R|| [[image:man1075.jpg|200px]] || [[image:man1075-2.jpg|200px]] || | ||
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:आचार्यश्री. 2 और 3 जून के लिए माटुंगा, बंबई, पधारे | उन्होंने यहाँ विशाल जनसमूह को संबोधित किया | उन्होंने कहा : " शब्द सत्य नहीं हैं | और इसलिए जो शब्दों में खोजता है वह सत्य से वंचित रह जाता है | खोजना ही है तो शब्दों में नहीं, निःशब्द में खोजो | शस्त्रों में नहीं, शून्य में खोजो | क्योंकि, शून्या में ही स्वयं का साक्षात होता है | और जो स्वयं को जान लेता है, उसका जीवन सत्य हो जाता है | स्वयं से अपरिचित जीवन ही असत्य जीवन है | " | :आचार्यश्री. 2 और 3 जून के लिए माटुंगा, बंबई, पधारे | उन्होंने यहाँ विशाल जनसमूह को संबोधित किया | उन्होंने कहा : " शब्द सत्य नहीं हैं | और इसलिए जो शब्दों में खोजता है वह सत्य से वंचित रह जाता है | खोजना ही है तो शब्दों में नहीं, निःशब्द में खोजो | शस्त्रों में नहीं, शून्य में खोजो | क्योंकि, शून्या में ही स्वयं का साक्षात होता है | और जो स्वयं को जान लेता है, उसका जीवन सत्य हो जाता है | स्वयं से अपरिचित जीवन ही असत्य जीवन है | " | ||
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:मनुष्यता किसी बड़ी दुर्घटना के करीब है, | :मनुष्यता किसी बड़ी दुर्घटना के करीब है, | ||
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| B-5R || [[image:man1077.jpg|200px]] || [[image:man1077-2.jpg|200px]] || | | B-5R || [[image:man1077.jpg|200px]] || [[image:man1077-2.jpg|200px]] || | ||
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:आचार्यश्री. 13, 14 जून चान्दा पधारे | उन्होंने श्री. रेकचन्द जी पारख एवं सौ. मदन कुँवर् पारख की सुपुत्री ची. सुशीला के विवाहोत्सव पर आशीर्वाद देते हुए कहा : " प्रेम प्रभु का द्वार है | और इसलिए प्रेम में जो जितना गहरा उतरता है वह परमात्मा के उतना ही निकट पहुँच जाता है | और वही प्रेम की कसौटी और परीक्षा भी है | प्रेम प्रभु में न ले जाये तो जानना कि वह प्रेम नहीं है | प्रेम पशु में नहीं ले जाता है, और जो ले जाता है, वह प्रेम नहीं है | वैसा प्रेम प्रेम का आभास ही है | और हममें से अधिक | :आचार्यश्री. 13, 14 जून चान्दा पधारे | उन्होंने श्री. रेकचन्द जी पारख एवं सौ. मदन कुँवर् पारख की सुपुत्री ची. सुशीला के विवाहोत्सव पर आशीर्वाद देते हुए कहा : " प्रेम प्रभु का द्वार है | और इसलिए प्रेम में जो जितना गहरा उतरता है वह परमात्मा के उतना ही निकट पहुँच जाता है | और वही प्रेम की कसौटी और परीक्षा भी है | प्रेम प्रभु में न ले जाये तो जानना कि वह प्रेम नहीं है | प्रेम पशु में नहीं ले जाता है, और जो ले जाता है, वह प्रेम नहीं है | वैसा प्रेम प्रेम का आभास ही है | और हममें से अधिक | ||
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| B-5V || [[image:man1078.jpg|200px]] || [[image:man1078-2.jpg|200px]] || | | B-5V || [[image:man1078.jpg|200px]] || [[image:man1078-2.jpg|200px]] || | ||
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:और, एसे सत्य की खोज की तैयारी ही धर्म की शिक्षा | :और, एसे सत्य की खोज की तैयारी ही धर्म की शिक्षा | ||
:है | :है | ||
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| B-6R || [[image:man1079.jpg|200px]] || [[image:man1079-2.jpg|200px]] || | | B-6R || [[image:man1079.jpg|200px]] || [[image:man1079-2.jpg|200px]] || | ||
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:आचार्यश्री. 15 जून को गोंदिया पधारे | रात्रि में उनके सान्निध्य में एक गोष्ठी हुई जिसमें उन्होंने कहा : " धर्म है मनुष्य की आंतरिक यात्रा | वह स्वयं में गति है | धर्म न तीर्थों में है, न मंदिरों में | वह बाह्य आयोजन और अनुष्ठान नहीं है | और इसलिए जो उसे बाहर खोजता है, वह उसे खो देता है | और चूँकि सैकड़ों वर्षों से हमने उसे बाहर ही खोजा है, इसलिए खो दिया है | मनुष्य का पथ बाह्य के अतिभार में ही इतना अंधकारग्रस्त है | और यदि हम अंतस की ज्योति को पुनरुज्जिवित नही कर सके तो मनुष्यता का कोई भी भविष्य नहीं | :आचार्यश्री. 15 जून को गोंदिया पधारे | रात्रि में उनके सान्निध्य में एक गोष्ठी हुई जिसमें उन्होंने कहा : " धर्म है मनुष्य की आंतरिक यात्रा | वह स्वयं में गति है | धर्म न तीर्थों में है, न मंदिरों में | वह बाह्य आयोजन और अनुष्ठान नहीं है | और इसलिए जो उसे बाहर खोजता है, वह उसे खो देता है | और चूँकि सैकड़ों वर्षों से हमने उसे बाहर ही खोजा है, इसलिए खो दिया है | मनुष्य का पथ बाह्य के अतिभार में ही इतना अंधकारग्रस्त है | और यदि हम अंतस की ज्योति को पुनरुज्जिवित नही कर सके तो मनुष्यता का कोई भी भविष्य नहीं | ||
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| B-6V || [[image:man1080.jpg|200px]] || [[image:man1080-2.jpg|200px]] || | | B-6V || [[image:man1080.jpg|200px]] || [[image:man1080-2.jpg|200px]] || | ||
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| B-7R || [[image:man1081.jpg|200px]] || [[image:man1081-2.jpg|200px]] || | | B-7R || [[image:man1081.jpg|200px]] || [[image:man1081-2.jpg|200px]] || | ||
:है | इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य को अंधकार और आत्मघात से बचाना है तो उसे उस आंतरिक प्रकाश से पुनर्मन्डित करना आवश्यक है जो कि उसके ही भीतर है जो क़ी उसका स्वरूप है, जो कि उसका धर्म है | " | |||
: | |||
:" विचार है विद्रोह | और विद्रोह ही है वह अग्नि जिसमें चित्त का स्वर्ण निखरता है | " | |||
:जीवन जाग्रति केंद्र संगोष्ठी, जबलपुर | |||
:आचार्यश्री. के सत्संग के लिए 25 जून को जीवन जाग्रति केंद्र जबलपुर ने एक संगोष्ठी आयोजित की | उसमें आचार्यश्री ने कहा : " सत्य की खोज में साहस से बड़ा और कोई गुण नहीं है | साहस ही यौवन है | और केवल वे चित्त ही सत्य के शिखरों को छू सकते है जो कि साहस के कारण सदा युवा है | साहस जहाँ नहीं है, वहाँ चित्त बूढ़ा है | बूढ़ा चित्त विश्वास कर सकता है लेकिन विचार नहीं है | क्योंकि, विचार तो विद्रोह है | और क्या आपको ज्ञात नहीं है कि सतत विद्रोह की अग्नि से गुज़रे बिना चित्त का स्वर्ण कभी भी निखरा नहीं है ? " | |||
: | |||
:" सत्य के सूर्य के लिए चाहिए स्वतंत्रता की आँखें | परतंत्र आत्मा के लिए परमात्मा नहीं है | " | |||
:सूरत में सत्संग : | |||
:आचार्यश्री. 28, 29, 30 जून को सूरत पधारे | सूरत में यह उनका पहला ही पदार्पण था | लेकिन उनके क्रांतिकारी वचनों ने एक अभूतपूर्व वातावरण का यहाँ सृजन किया | सूरत के बौद्धिक वातावरण में एक नया जीवन ही आ गया था | उन्होंने यहाँ कहा : " परमात्मा परम स्वतंत्रता है और इसलिए केवल वे व्यक्ति ही उसकी अनुभूति को उपलब्ध हो सकते हैं, जो कि स्वयं को समस्त मानसिक दासताओं से मुक्त कर लेते हैं | और मान की सारी गुलामी हमारी स्वयं की निर्मित है | वह है क्योंकि हमारा उसे सहयोग है | हमारे सहयोग के बिना शारीरिक बंधन तो हो सकते हैं लेकिन मानसिक नहीं | इसलिए मानसिक दासता का सारा दायित्व स्वयं व्यक्ति पर ही है | हम परतंत्र हैं क्योंकि हमने स्वतंत्र नहीं होना चाहा है | स्वतंत्रता की कामना ही स्वतंत्रता बन जाती है | क्योंकि, जो स्वतंत्र होना चाहता है, वह परतंत्रता को अपना सहयोग देना बंद कर देता है | और स्वतंत्र होते ही आँखें | |||
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| B-7V || [[image:man1082.jpg|200px]] || [[image:man1082-2.jpg|200px]] || | | B-7V || [[image:man1082.jpg|200px]] || [[image:man1082-2.jpg|200px]] || | ||
:ज्ञान केवल वह है जो कि स्वानुभव भी है | | |||
:शब्द और शस्त्र से सीखे गये ज्ञान का कोई भी मूल्य नहीं है, क्योंकि वह ज्ञान ही नहीं है | | |||
:शास्त्र स्मृति बन जाते हैं | | |||
:और स्मृति ही ज्ञान नहीं है | | |||
:स्वयं के साक्षात से जो ज्ञान जन्मता है, वह अनिवार्यतः जीवन को बदल जाता है | | |||
:यही उसके स्वयं से जन्मे होने की कसौटी भी है | | |||
:और जो ज्ञान उधार है, वह मात्र स्मृति को भर देता है लेकिन जीवन उससे अछूता ही रह जाता है | एसा ज्ञान अज्ञान को तो मिटाता ही नहीं ही, उल्टे वह अहंकार भी बन जाता ही | | |||
:और अज्ञान पर अहंकार वैसे ही है जैसे नीमचढ़ा करेला | वह रोग पर और महारोग है | | |||
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| B-8R || [[image:man1083.jpg|200px]] || [[image:man1083-2.jpg|200px]] || | | B-8R || [[image:man1083.jpg|200px]] || [[image:man1083-2.jpg|200px]] || | ||
:उस सूर्य की और उठती हैं जो कि सत्य है | सत्य के सूर्य को केवल स्वतंत्र आँखें ही देख सकती हैं | " | |||
: | |||
:" आँखें खोलो | बंद आँखों के अतिरिक्त अंधकार और कहीं नहीं है | " | |||
:थ्योसोफिकल सोसाइटी सूरत में : | |||
:आचार्यश्री ने 22 जून की संध्या थ्योसोफिकल सोसाइटी को संबोधित किया | सोसाइटी का हाल श्रोताओं से खचाखच भरा था | आचार्यश्री ने यहाँ कहा : " मित्रों, क्या तुम आलोक के दर्शन करना चाहते हो ? तो आँखें खोलो ------- आँखें बंद किए हुए तो प्रकाश के सागर के मध्य में खड़े होकर भी तुम्हें प्रकाश के दर्शन न हो सकेंगे | प्रकाश तो सदा है | लेकिन, हम आँखें बंद किए खड़े हैं इसलिए अंधकार में हैं | " | |||
: | |||
:" ज्ञान क्रांति है | और वह क्रांति ही धर्म में प्रतिष्ठा है | " | |||
:लायंस क्लब सूरत में : | |||
:आचार्यश्री 29 जून की संध्या लायंस क्लब में पधारे | उन्होंने यहाँ नीति और धर्म पर अपने क्रांतिकारी विचार प्रकट किए | उन्होंने कहा : " धर्म तो नीति है | लेकिन, नीति धर्म नहीं है | क्योंकि धर्म व्यक्ति के अंतस का आमूल परिवर्तन है | और जब अंतस बदलता है तो आचरण तो बदल ही जाता है | लेकिन इसके विपरीत सत्य नहीं है | आचरण का बदल जाना ही अंतस का बदल जाना नहीं है | आचरण की बदलाहट असीमित हो होती है | वह अंतस के वस्त्र पर खड़ी होती है | और जहाँ दमन है, वहाँ चित्त अस्वस्थ है | मैं दमन के पक्ष में नहीं हूँ क्योंकि मनुष्य की सारी विक्षिप्तता और रुग्णता उसी का फल है | मैं तो चित्त का आमूल परिवर्तन चाहता हूँ | यह परिवर्तन होता है स्व-चित्त के ज्ञान से | और स्व-चित्त का ज्ञान आता है चित्त की प्रक्रियाओं के सम्यक निरीक्षण से | स्वयं के चित्त का निरीक्षण करें | उसे देखें | उसे समझें | और वह समझ ही एक परिवर्तन बन जाती है | ज्ञान क्रांति है | और वैसी क्रांति ही धर्म में प्रतिष्ठा है | " | |||
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| B-8V || [[image:man1084.jpg|200px]] || [[image:man1084-2.jpg|200px]] || | | B-8V || [[image:man1084.jpg|200px]] || [[image:man1084-2.jpg|200px]] || | ||
( | (same content as 22B-5V - both written on photocopies?) | ||
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| B-9R || [[image:man1085.jpg|200px]] || [[image:man1085-2.jpg|200px]] || | | B-9R || [[image:man1085.jpg|200px]] || [[image:man1085-2.jpg|200px]] || | ||
:" चित्त को बनाना है एक शांत झील ताकि जीवन अपने पूरे सौंदर्य और आनंद के साथ उसमें प्रतिफलित हो सके | और आत्मजागरण से चित्त वैसी झील बन जाता है | " | |||
:रोटरी क्लब सूरत में : | |||
:आचार्यश्री. ने 30 जून की संध्या रोटरी क्लब के मध्य अपने विचार प्रकट किए | उन्होंने कहा : " जीवन के आनंद को हम नही जान पाते हैं | जीवन की विक्षिप्त दौड़ के कारण | जीवन को ही एसे हम खो देते हैं | जीवन को जानने और जीने के लिए चाहिए, एक सहन्ती, एक मौन, एक अविक्षिप्त चित्त | यह कैसे संभव है ? यह संभव है स्वयं की महात्वाकांक्षाओं के प्रति जगाने से | यह संभव है स्वयं के मानसिक तनावों के प्रति होश से भर जाने से | क्योंकि, स्वयं की चेतना में स्वयं की जाग्रति में जो व्यर्थ दिखाई पड़ता है, वह छूट जाता है | उसे छोड़ना नहीं पड़ता है, वह सहज ही छूट जाता है | आत्मजागरण क्रमशः चित्त को शांति और मौन से भर देता है | चित्त एक विश्रा, बन जाता है | और तभी चित्त की उस शांत और शून्य झील में जीवन अपने पूरे आनंद एर सौंदर्य के साथ प्रतिफलित होता है | " | |||
: | |||
:" व्यक्तित्व की खोज ही है वास्तविक शिक्षा | प्रत्येक को स्वयं जैसा होना है | और जो किसी और जैसा होने के अनुकरण में पड़ता है, वह आत्महंता है | उसकी आत्मा फिर उसे कभी भी क्षमा नहीं कर पाती है | " | |||
:एस. एन. डी. टी. महिला महाविद्यालय माटुंगा, बंबई में प्रवचन : | |||
:आचार्यश्री. 1 जुलाई की दोपहर एस. एन. डी. टी. महिला महाविद्यालय माटुंगामें पधारे | उन्होंने यहाँ कहा : " व्यक्तित्व की खोज ही वास्तविक शिक्षा है | लेकिन, अभी तो हम विश्वविद्यालयों से अपना व्यक्तित्व खोकर ही बाहर निकलते हैं ! प्रत्येक व्यक्ति कुछ होने को पैदा हुआ है | और प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अनूठी प्रतिभा है और अद्वितीय जीवन है | उसे किसी और जैसा नहीं होना है | उसे बनना है स्वयं | उसे होना है अपने जैसा ही | और जिस दिन वह एसा हो जाता है, उसी दिन उसके जीवन में धन्यता और कृतार्थता का अनुभव होता है | और जो दूसरों के अनुकरण में स्वयं को खो देता है, वह सदा दुख में जीता है क्योंकि उसके भीतर जो बीज वृक्ष बनने को लालयोत थे, वे सदा के लिए ही कुंठित होकर रह जाते हैं | " | |||
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| B-9V || [[image:man1086.jpg|200px]] || [[image:man1086-2.jpg|200px]] || | | B-9V || [[image:man1086.jpg|200px]] || [[image:man1086-2.jpg|200px]] || | ||
:5. | |||
:धार्मिक कहे जाने वाले लोगों का शिक्षा में उत्सुकता | |||
:में कुछ और ही स्वार्थ है. उस स्वार्थ की गहरी और पुरानी जड़ें हैं. उन पर | |||
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| B-10R || [[image:man1087.jpg|200px]] || [[image:man1087-2.jpg|200px]] || | | B-10R || [[image:man1087.jpg|200px]] || [[image:man1087-2.jpg|200px]] || | ||
:" प्रभु की प्यास की पूर्णता ही प्रभु की प्राप्ति है | वह तो सदा निकट है, लेकिन हम ही उसके लिए प्यासे नहीं हैं | " | |||
:नंदुरबार में सत्संग : | |||
:आचार्यश्री. 10, 11, 12 जुलाई के लिए नंदुरबार पधारे | उनके सैकड़ों प्रेमी यहाँ वर्ष भर से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे | प्रभु के लिए वे एसी प्यास जगा देते हैं जो कि बुझती ही नहीं है | और वे कहते भी यही हैं कि जब प्यास पूर्ण होती है तो प्रभु मिल जाता है | प्यास की पूर्णता ही उसकी प्राप्ति है | उन्होंने यहाँ इस प्यास के और बीज भी इस बार बोये | उन्होंने यहाँ कहा : " मैं तो तुम्हें अतृप्त और असंतुष्ट करना चाहता हूँ | क्योंकि व्यर्थ से और असार से जो तृप्त हो जाता है, उसका जीवन भी व्यर्थ हो जाता है | व्यर्थ से, असार से, बाह्य से तृप्त नहीं हो जाना है | क्योंकि तभी सार्थक, और आंतरिक की अभिप्सा जाग सकती है | वह अभिप्सा जब जाग जाती है तो फिर परमात्मा दूर नहीं है | वह तो सदा ही निकट है, लेकिन हम ही उसके लिये प्यासे नहीं हैं | उसके लिए हमारी प्यास के अभाव के अतिरिक्त हमारे और उसके बीच और कोई दूरी नहीं है | " | |||
: | |||
:" अंधविश्वास नहीं, आत्मविवेक | क्योंकि अंधविश्वास परतंत्रता है और आत्मविवेक स्वतंत्रता है | " | |||
:नंदुरबार महाविद्यालय में : | |||
:आचार्यश्री. ने 11 जुलाई की दोपहर महाविद्यालय के विद्यार्थियों को संबोधित किया | उन्होंने उनसे कहा : " हज़ारों वर्षों की मानसिक गुलामी के नीचे मनुष्य दबा है | उसे इससे मुक्त करना है | उसकी मुक्ति से एक अभूतपूर्व सृजनात्मक उर्जा का जन्म होगा और पृथ्वी का नक्शा ही बदल जायेगा | पृथ्वी निश्चय ही स्वर्ग बन सकती है | और यदि वह नर्क है तो हमारे अतिरिक्त और कोई इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं है } मानसिक गुलामी का आधार क्या है ? अंधविश्वास | और उससे मुक्ति का द्वार क्या है ? आत्म-विवेक | अंधविश्वास छोड़ो और आत्मविवेक जगाओ तो तुम एक नई मनुष्यता के जन्मदाता बन सकते हो | और यदि मनुष्य को बचाना है तो नये मनुष्य को जन्म देना आवश्यक हो गया है | पुराने मनुष्य ने तो जागतिक आत्मघात की पूरी तैयारी कर ली है | " | |||
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| B-10V || [[image:man1088.jpg|200px]] || [[image:man1088-2.jpg|200px]] || | | B-10V || [[image:man1088.jpg|200px]] || [[image:man1088-2.jpg|200px]] || | ||
(same content as 22B-9V - both written on photocopies?) | |||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| B-11 || [[image:man1089.jpg|200px]] || [[image:man1089-2.jpg|200px]] || | | B-11 || [[image:man1089.jpg|200px]] || [[image:man1089-2.jpg|200px]] || | ||
:" परमात्मा कहाँ है ? मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजों में ? नहीं | नहीं | हज़ार बार नहीं | वह है वहाँ जहाँ कि हम उसे खोजते ही नहीं हैं | " | |||
:जलगाँव में जनसभा : | |||
:आचार्यश्री. 12 जुलाई की संध्या जलगाँव पधारे | रात्रि में ही उन्होंने एक वृहत जनसभा को संबोधित किया | उन्होंने यहाँ कहा : " परमात्मा कहाँ है ? मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजों में, गुरुद्वारों में ? नहीं | नहीं | हज़ार बार नहीं | परमात्मा तो वहाँ है, जहाँ हम उसे खोजते ही नहीं हैं | वह है स्वयं में | और इसलिए जो उसे वहाँ खोजता है, वह निश्चय ही उसे पा लेता है | " | |||
: | |||
:" जीवन की कृतार्थता कहाँ है ? बाह्य की दौड़ में ? नहीं | वह तो आंतरिक की उपलब्धि के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है | " | |||
:टीचर्स ट्रेनिंग कालेज जलगाँव में, | |||
:आचार्यश्री ने 13 जुलाई की प्रातःकाल टीचर्स ट्रेनिंग कालेज में प्रवचन दिया | उन्होंने शिक्षा के उपर अपने अत्यंत मौलिक विचार दिए | उन्होंने कहा : " शिक्षा की दिशा भ्रांत है, इसलिए ही मनुष्य की जीवनदिशा भी खो गई है | मौजूदा शिक्षा पद्धति एकदम अधूरी, अपूर्ण और आंशिक है | उसके कारण एक असंतुलन व्यक्तित्व में निर्मित होता है | वह केवल बौद्धिक है | और इसलिए मनुष्य का समग्र व्यक्तित्व उससे अधूरा ही रह जाता है | बुद्धि के अतिरिक्त और पूरा मनुष्य अशिक्षित ही रहता है | उसका हृदय आशंकित रहता है, उसका अंतःकरण अशिक्षित रहता है, और आत्मा की और तो व्यक्ति की आँखें ही नहीं उठ पाती हैं | और जो शिक्षा आंतरिक की और इशारा नहीं बनती हैं, बस केवल बाह्य पर ही समाप्त हो जाती हैं, वह अशांति तो ला सकती है लेकिन शांति नहीं, वह दौड़ तो जा सकती है लेकिन जीवन को वहाँ नहीं पहुँचा सकती जिसे की उपलब्धि कहा जा सके | जीवन की कृतार्थता तो आंतरिक की उपलब्धि में ही है | वह तो आत्मा को पा लेने के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है | " | |||
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| B-12 || [[image:man1090.jpg|200px]] || [[image:man1090-2.jpg|200px]] || | | B-12 || [[image:man1090.jpg|200px]] || [[image:man1090-2.jpg|200px]] || | ||
:" विज्ञान और धर्म में चाहिए एक समन्वय, एक संतुलन | और मैं पूछता हूँ कि क्या एसा समन्वय असंभव है ? क्योंकि, उस समन्वय पर ही मनुष्य का सारा भविष्य निर्भर है | " | |||
:अमलनेर महाविद्यालय में प्रवचन : | |||
:आचार्यश्री. 13 जुलाई की दोपहर अमालनेर पधारे | उन्होने अमालनेर महाविद्यालय की हिन्दी समिति का उद्घाटन किया | अपने उद्घाटन भाषण में उन्होंने ' विज्ञान और आध्यात्म ' पर विचार प्रकट करते हुये कहा : " मनुष्यता का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि हम विज्ञान और आध्यात्म में अबतक कोई सेतु निर्मित नहीं कर पाय हैं | विज्ञान और अध्यात्म तो वैसे ही हैं जैसे कि शरीर और आत्मा | मनुष्य का व्यक्तित्व उन दोनों का ही अदभुत सम्मेलन है | वह उन दोनों की ही अखंडता है | मनुष्य की संस्कृति भी एसी ही अखंड होनी चाहिए | वह एकांगी होगी तो अपूर्ण होगी | लेकिन अबतक तो जो भी संस्कृतियाँ निर्मित हुई वे सभी अपूर्ण, एकांगी और अतिवादी थीं | पूर्व ने आध्यत्म पर इतना अति आग्रह किया कि विज्ञान को तिलांजलि दे दी और पश्चिम ने ठीक इसके विपरीत किया | पश्चिम ने विज्ञान को विक्षिप्त ही पकड़ा और धर्म को विदा दे दी | फलतः पूर्व हो गया दरिद्र, शक्तिहीन और दास और पश्चिम हो गया अशांत, क्रूर और विक्षिप्त | पूर्व अध्यात्म की अति से पीड़ित है और पश्चिम विज्ञान की | और भविष्य इस पर निर्भर है कि वह इन दोनों अतियों से उपर उठ सकेंगे और एक एसी मानवीय संस्कृति को जन्म दे सकेंगे जिसे कि विज्ञान के कारण शक्तिशाली और समृद्ध हो और आध्यात्म के कारण शांत और आंतरिक आनंद में परिपूरित | एक संतुलन चाहिए , एक समन्वय चाहिए | तो ही उस संस्कृति को जन्म दिया जा सकता है जो कि पूर्ण हो | और मैं पूछता हूँ कि क्या एसा संतुलन और समन्वय असंभव है ? " | |||
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:" मूर्छा ---- स्वयं के प्रति मूर्छा है दुख | क्योंकि, वह उससे परिचित नहीं होने देती है जो कि आनंद है | आत्मा आनंद है | " | |||
:अमलनेर में जनसभा : | |||
:आचार्यश्री. ने 13 जुलाई की रात्रि मराठी साहित्य संघ द्वारा आयोजित एक वृहत जनसभा को संबोधित करते हुए यहाँ कहा : " वह शक्ति क्या है जो मनुष्य को दुख से बाँधे रखती है ? | |||
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| B-13R || [[image:man1091.jpg|200px]] || [[image:man1091-2.jpg|200px]] || | | B-13R || [[image:man1091.jpg|200px]] || [[image:man1091-2.jpg|200px]] || | ||
:क्या वह मनुष्य के बाहर है ? नहीं | वह शक्ति बाहर नहीं है | वह भी मनुष्य के भीतर है | वह है मनुष्य की स्वयं के प्रति मुर्छा | हम स्वयं के प्रति करीब करीब सोए ही हुए हैं | यह निद्रा ही हमारा दुख है क्योंकि इसके कारण ही हम उस आनंद से परिचित नहीं हो पाते हैं जो कि स्वयं में ही छिपा है | जागना है | स्वयं के प्रति जागना है | और स्वयं के प्रति जागते ही दुख नहीं है, मृत्यु नहीं है, अंधकार नहीं है | " | |||
: | |||
:" अहंकार से मुक्त हो जाना ही मोक्ष है | वही है दीवार जो कि स्वयं को स्वयं से ही नहीं मिलने देती है | " | |||
:जीवन जागृति केंद्र संगोष्ठी, जबलपुर | |||
:आचार्यश्री. के सान्निध्य में 28 जुलाई को जबलपुर में एक संगोष्ठी आयोजित की गई थी | उन्होंने संगोष्ठी में कहा : " अहंकार के अतिरिक्त आत्मा पर और कौन सा पर्दा है ? वही है दीवार जो की स्वयं से ही मिलने नहीं देती है | उसे तोड़ने में जो समर्थ है वह स्वयं को पाने का अधिकारी बन जाता है | उसे खोने को जो राज़ी है, वह परमात्मा को पा लेता है | उससे मुक्त हो जाना ही मोक्ष है | " | |||
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| B-13V || [[image:man1092.jpg|200px]] || [[image:man1092-2.jpg|200px]] || | | B-13V || [[image:man1092.jpg|200px]] || [[image:man1092-2.jpg|200px]] || | ||
:क्रम ----- | |||
:1 शिक्षा और धर्म | |||
:2 बिंदु बिंदु विचार | |||
:3 फूल और फूल और फूल | |||
:4 ज्ञान गंगा | |||
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| C-1 || [[image:man1093.jpg|200px]] || [[image:man1093-2.jpg|200px]] || | | C-1 || [[image:man1093.jpg|200px]] || [[image:man1093-2.jpg|200px]] || | ||
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| E-2V || [[image:man1123.jpg|200px]] || [[image:man1123-2.jpg|200px]] || | | E-2V || [[image:man1123.jpg|200px]] || [[image:man1123-2.jpg|200px]] || | ||
:या धर्म में भागने का नहीं है | सवाल है स्वयं में जागने का | अभाव क्या है ?---- रिक्तता क्या है ?------यह स्वयं में जो शून्यता है, वह क्या है ? इसे जाने बिना जो मानता है , वह तो बाहर ही भागेगा क्योंकि वह तो भीतर से भयभीत जो है | यहि उसकी मती, गति स्वयं से पलायन ही होगी | जबकि स्वयं से कोई कैसे भाग सकता है ? स्वयं का होना यदि शून्यता भी है तो भी उससे भागा नहीं जा सकता है | वह जो भी है, वही है | उससे भागना असंभव होता है | क्योंकि, स्वयं के प्रति जागते ही पाया जाता है कि जो शून्य जैसा प्रतीत होता था , वह तो पूर्ण है | पूर्ण के प्रति जिद्द हो तो वह शून्य है, यदि शून्य के प्रति भरेंगे तो वही पूर्ण है | शून्य और पूर्ण एक ही सत्य के दो अनुभव हैं | निद्रा में पूर्ण शून्य मालूम होता है और जागरण में शून्य पूर्ण हो जाता है |" | :या धर्म में भागने का नहीं है | सवाल है स्वयं में जागने का | अभाव क्या है ?---- रिक्तता क्या है ?------यह स्वयं में जो शून्यता है, वह क्या है ? इसे जाने बिना जो मानता है , वह तो बाहर ही भागेगा क्योंकि वह तो भीतर से भयभीत जो है | यहि उसकी मती, गति स्वयं से पलायन ही होगी | जबकि स्वयं से कोई कैसे भाग सकता है ? स्वयं का होना यदि शून्यता भी है तो भी उससे भागा नहीं जा सकता है | वह जो भी है, वही है | उससे भागना असंभव होता है | क्योंकि, स्वयं के प्रति जागते ही पाया जाता है कि जो शून्य जैसा प्रतीत होता था , वह तो पूर्ण है | पूर्ण के प्रति जिद्द हो तो वह शून्य है, यदि शून्य के प्रति भरेंगे तो वही पूर्ण है | शून्य और पूर्ण एक ही सत्य के दो अनुभव हैं | निद्रा में पूर्ण शून्य मालूम होता है और जागरण में शून्य पूर्ण हो जाता है |" | ||
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| E-3 || [[image:man1124.jpg|200px]] || [[image:man1124-2.jpg|200px]] || | | E-3 || [[image:man1124.jpg|200px]] || [[image:man1124-2.jpg|200px]] || | ||
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:<u>मंडला में विशाल जनसभा</u> | :<u>मंडला में विशाल जनसभा</u> | ||
:आचार्यश्री 21 फ़रवरी की संध्या मंडला पधारे | रात को उन्होंने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मैं प्रेम के अतिरिक्त और किसी प्रार्थना को नहीं जानता हूँ | और मै कहता हूँ कि जो प्रेम में समग्रतः प्रविष्ट हो जाते हैं, वे परमात्मा को भी पा लेते हैं | लेकिन प्रेम को पाने के लिए स्वयं को खोना पड़ता है | क्योंकि अह्न्कार की चट्टान के अतिरिक्त प्रेम के झरने को रोकने में और क्या बाधा है ? प्रेम तो प्रत्येक के हृदय में भरा है, लेकिन अहंकार द्वार को रोके हुए है | अहंकार को छोड़ो यदि प्रेम को पाना है तो | और प्रेम तो आवश्यक है यदि परमात्मा को पाना है | अहंकार अंधकार है | परमात्मा आलोक | अहंकार परतंत्रता है | परमात्मा स्वतंत्रता है | और अहंकार से, अंधकार से, परतंत्रता से जो परमात्मा तक, प्रकाश तक, परममुक्ति तक जाना चाहता है, उसके लिए मार्ग क्या है ? उसके लिए प्रेम मार्ग है | प्रेम और प्रेम और प्रेम | प्रेम ही जीवन है | प्रेम ही प्रार्थना | और अंततः प्रेम ही परमात्मा है | लेकिन हम प्रार्थनाएँ भी करते हैं, और परमात्मा के मंदिरों में मनुष्य निर्मित मंदिरों की परिक्रमाएँ भी करते हैं, पर प्रेम में हमारे हृदय बिल्कुल शून्य हैं | इसलिए न हमारी प्रार्थनाओं का कोई मूल्य है और न हमारे परमात्माओं का | उल्टे वे और भी मनुष्य को मनुष्य से तोड़ते जाने का कारण बन गये हैं | और क्या जो मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता हो, वह कभी उसे परमात्मा से भी जोड़ सकता है ? प्रेम के अतिरिक्त और कोई कर्म नहीं है | क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त स्वयं और समग्र के बीच और कोई सेतु नहीं है | प्रार्थनाएँ छोड़ो और प्रेम करो | परमात्मा को छोड़ो और प्रेम करो | और अंततः पाओगे कि प्रार्थना पूरी हो गयी है और | :आचार्यश्री 21 फ़रवरी की संध्या मंडला पधारे | रात को उन्होंने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मैं प्रेम के अतिरिक्त और किसी प्रार्थना को नहीं जानता हूँ | और मै कहता हूँ कि जो प्रेम में समग्रतः प्रविष्ट हो जाते हैं, वे परमात्मा को भी पा लेते हैं | लेकिन प्रेम को पाने के लिए स्वयं को खोना पड़ता है | क्योंकि अह्न्कार की चट्टान के अतिरिक्त प्रेम के झरने को रोकने में और क्या बाधा है ? प्रेम तो प्रत्येक के हृदय में भरा है, लेकिन अहंकार द्वार को रोके हुए है | अहंकार को छोड़ो यदि प्रेम को पाना है तो | और प्रेम तो आवश्यक है यदि परमात्मा को पाना है | अहंकार अंधकार है | परमात्मा आलोक | अहंकार परतंत्रता है | परमात्मा स्वतंत्रता है | और अहंकार से, अंधकार से, परतंत्रता से जो परमात्मा तक, प्रकाश तक, परममुक्ति तक जाना चाहता है, उसके लिए मार्ग क्या है ? उसके लिए प्रेम मार्ग है | प्रेम और प्रेम और प्रेम | प्रेम ही जीवन है | प्रेम ही प्रार्थना | और अंततः प्रेम ही परमात्मा है | लेकिन हम प्रार्थनाएँ भी करते हैं, और परमात्मा के मंदिरों में मनुष्य निर्मित मंदिरों की परिक्रमाएँ भी करते हैं, पर प्रेम में हमारे हृदय बिल्कुल शून्य हैं | इसलिए न हमारी प्रार्थनाओं का कोई मूल्य है और न हमारे परमात्माओं का | उल्टे वे और भी मनुष्य को मनुष्य से तोड़ते जाने का कारण बन गये हैं | और क्या जो मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता हो, वह कभी उसे परमात्मा से भी जोड़ सकता है ? प्रेम के अतिरिक्त और कोई कर्म नहीं है | क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त स्वयं और समग्र के बीच और कोई सेतु नहीं है | प्रार्थनाएँ छोड़ो और प्रेम करो | परमात्मा को छोड़ो और प्रेम करो | और अंततः पाओगे कि प्रार्थना पूरी हो गयी है और | ||
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| E-4V || [[image:man1126.jpg|200px]] || [[image:man1126-2.jpg|200px]] || | | E-4V || [[image:man1126.jpg|200px]] || [[image:man1126-2.jpg|200px]] || | ||
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:<u>अहमदाबाद में सत्संग</u> | :<u>अहमदाबाद में सत्संग</u> | ||
:आचार्यश्री के सान्निध्य में 4, 5, 6 मार्च को एक विशाल सत्संग का आयोजन यहाँ हुआ | इस सत्संग से एक क्रांति की लहर ही पैदा हो गई | आचार्या श्री ने प्रवचन दिए | उन्होंने कहा : "धर्मों में धर्म नहीं है | और जिसे धर्म को पाना है, उसे धर्मों से मुक्त होना पड़ता है | धर्म तो एक है क्योंकि सत्य एक है | और इस सत्य को पाने के लिए सत्य के संबंध में प्रचारित और स्वीकृत सारी धारणाएँ छोड़नी आवश्यक हैं | जो उन धारणाओं को लेकर चलता है, वह सत्य को नहीं, बस अपनी धारणाओं के ही अनुभव को उपलब्ध होता है | निश्चय ही वैसी अनुभूतियाँ स्वयं की मनोकल्पनाओं से ज़्यादा नहीं होती है | और कल्पनाएं करने में मनुष्य का मन खूब समर्थ है | प्रकार प्रकार के ईश्वर इसी मन से पैदा होते हैं | लेकिन 'जो है' उसे जानने में एसा मन असमर्थ हो जाता है | तथाकथित धार्मिक लोग इसीलिए कभी सत्य को नहीं जान पाते हैं | क्योंकि वे स्वयं को गढ़ने में जो संलग्न होते हैं | एसे गृह-निर्मित सत्यों के कारण ही धर्मों का नाश हो गया है | जबकि धर्म में प्रवेश के लिए सत्यों के घड़ने का यह गृह-उद्योग बिल्कुल ही बंद करना होता है | मन जब सबभाँति धारणा शून्य, विचारों से रिक्त और कल्पनों से मुक्त होता है, तभी वह जाना जाता है, जो है | वही है सत्य | वही है परमात्मा | और उसे जानना ही मुक्ति है | निश्चय ही स्वयं सत्य को नहीं घड़ना है, बल्कि स्वयं को मिटाना है ताकि सत्य प्रकट हो सके | और तब चित्त धारणाओं और विचारों और कल्पनाओं से शून्य होता है तो मिट ही जाता है | इस नकारात्मक दशा में ही सत्य जाना जाता है | मन की कोई भी विधायक क्रिया उसे पाने में बाधा है | मनुष्य सत्य को नहीं पा सकता है | हाँ, जहाँ वह नहीं है, वहीं सत्य प्रकट है |“ | :आचार्यश्री के सान्निध्य में 4, 5, 6 मार्च को एक विशाल सत्संग का आयोजन यहाँ हुआ | इस सत्संग से एक क्रांति की लहर ही पैदा हो गई | आचार्या श्री ने प्रवचन दिए | उन्होंने कहा : "धर्मों में धर्म नहीं है | और जिसे धर्म को पाना है, उसे धर्मों से मुक्त होना पड़ता है | धर्म तो एक है क्योंकि सत्य एक है | और इस सत्य को पाने के लिए सत्य के संबंध में प्रचारित और स्वीकृत सारी धारणाएँ छोड़नी आवश्यक हैं | जो उन धारणाओं को लेकर चलता है, वह सत्य को नहीं, बस अपनी धारणाओं के ही अनुभव को उपलब्ध होता है | निश्चय ही वैसी अनुभूतियाँ स्वयं की मनोकल्पनाओं से ज़्यादा नहीं होती है | और कल्पनाएं करने में मनुष्य का मन खूब समर्थ है | प्रकार प्रकार के ईश्वर इसी मन से पैदा होते हैं | लेकिन 'जो है' उसे जानने में एसा मन असमर्थ हो जाता है | तथाकथित धार्मिक लोग इसीलिए कभी सत्य को नहीं जान पाते हैं | क्योंकि वे स्वयं को गढ़ने में जो संलग्न होते हैं | एसे गृह-निर्मित सत्यों के कारण ही धर्मों का नाश हो गया है | जबकि धर्म में प्रवेश के लिए सत्यों के घड़ने का यह गृह-उद्योग बिल्कुल ही बंद करना होता है | मन जब सबभाँति धारणा शून्य, विचारों से रिक्त और कल्पनों से मुक्त होता है, तभी वह जाना जाता है, जो है | वही है सत्य | वही है परमात्मा | और उसे जानना ही मुक्ति है | निश्चय ही स्वयं सत्य को नहीं घड़ना है, बल्कि स्वयं को मिटाना है ताकि सत्य प्रकट हो सके | और तब चित्त धारणाओं और विचारों और कल्पनाओं से शून्य होता है तो मिट ही जाता है | इस नकारात्मक दशा में ही सत्य जाना जाता है | मन की कोई भी विधायक क्रिया उसे पाने में बाधा है | मनुष्य सत्य को नहीं पा सकता है | हाँ, जहाँ वह नहीं है, वहीं सत्य प्रकट है |“ | ||
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| E-6V || [[image:man1130.jpg|200px]] || [[image:man1130-2.jpg|200px]] || | | E-6V || [[image:man1130.jpg|200px]] || [[image:man1130-2.jpg|200px]] || |
Revision as of 19:36, 12 March 2018
Reports of Nation-Wide Programmes of Acharya Shri
- year
- A: 7 - 22 Apr 1968
- B: 5 May - 29 Jul 1968
- C: 2 Aug - 20 Sep 1968
- D: 11 Nov 1968 - 18 Jan 1969
- E: 4 Feb - 2 Apr 1969
- notes
- 69 pages in groups A to E.
- A: 4 sheets
- B: 13 sheets plus 10 written on reverse
- C: 17 sheets
- D: 8 sheets plus 2 written on reverse
- E: 9 sheets plus 7 written on reverse
- Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".