acharya rajneesh
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मेरे प्रिय,
प्रेम। प्रभु के बिना जीवन अधूरा है ही।
इसलिए अधूरा लगता है।
वैसे, यह बोध -- अभाव -- अधूरेपन की यह प्रतीति शुभ है।
क्योंकि, इस बोध से और इस बोध के कारण ही प्रस्न की जिज्ञासा शुरू होती है।
'अथातो प्रस्नजिज्ञासा।'
इस बोध से बचना भर नहीं।
इस अभाव से भागना भर नहीं।
इस प्रतीति से पलायन भर नहीं करना।
वैसे मन पलायन ही सुझायेगा।
वह पलायन ही संसार है।
संसार पलायन (Escape) है।
संसार की सारी व्यस्तता पलायन है।
यह अभाव को भरने की निष्फल कोशिश है।
इसलिए, उस दौड़ के फलस्वरूप सिवाय विषाद के और कुछ भी हाथ नहीं लगता है
क्योंकि चाहिए प्रभु और भरते हैं पदार्थ से।
क्योंकि चाहिए धर्म और भरते हैं धन से।
क्योंकि चाहिए स्व और भरते हैं पर से।
फिर सब मिल भी जाता है और फिर भी कुछ नहीं मिलता है।
फिर अभाव और गहन होकर प्रगट होता है।
ऐसे क्षण बहुमूल्य हैं; क्योंकि ऐसे क्षण चुनाव और निर्णय के क्षण हैं।
या तो फिर पलायन चुना जासकता है।
या पलायन के चुनाव से इंकार किया जासकता है।
पलायन चुना तो फिर फिर वही परिणाम है।
जन्मों जन्मों तक फिर फिर वही वही परिणाम है।
अब रुको और पलायन मत चुनो।
अभाव से भागो मत -- अभाव में ठहरो।
खाली पन को भरो मत वरन् स्वयं में खालीपन को ही पूर्णतया भर जाने दो।
और वह क्रांति होजायेगी जिसका कि नाम सन्यास है।
और वह मिल जायेगा जो कि समस्त अभावों को बाष्पीभूत कर देता है।
लेकिन ध्यान रहे कि यह सब मात्र बुद्धि में नहीं घटता है।
सोचो मत -- अब जानो -- अब अनुभव करो।
ऐसे भी क्या सोच-विचार कुछ कम किया है ?
रजनीश के प्रणाम
२०/१२/१९७०
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