There is another letter written to her on the same date.
acharya rajneesh
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प्यारी मौनू,
प्रेम| जोशु (Joshu) ने पूछा अपने गुरु नानसेन (Nansen) से : "सत्य का सम्यक् मार्ग क्या है?"
नानसेन बोला : "अति-साधारण है वह मार्ग। दैनंदिन का ही है वह मार्ग। चलते हो जिस पर प्रतिदिन वही है वह मार्ग।"
जोशु पूछने लगा तब : "क्या मैं उसका अध्ययन कर सकता हूं?"
नानसेन ने कहा : "नहीं - क्योंकि जितना ही तुम उसका अध्ययन करोगे उतने ही उससे दूर हो जाओगे। जितना ही सोचोगे उसे - उतनी ही दूर भटकोगे उससे। इधर आया विचार कि उधर खोया मार्ग !"
स्वभावत: चकित हो जोशु ने कहा : "जब मैं उसका अध्ययन ही नहीं कर सकता हूं तो उसे जानूंगा कैसे?"
इस पर नानसेन हंसा और चुप हो गया।
थोड़ी देर जोशु ने मौन में प्रतीक्षा की और पुन: प्रार्थना की : "कुछ तो कहें कि वह मार्ग कैसा है?"
तब नानसेन आकाश की ओर देखने लगा और बोला : "वह मार्ग दृश्य वस्तुओं में से नहीं है - न ही अदृश्य वस्तुओं में से है। वह न ज्ञात की कोटि में आता है, न अज्ञात की। उसे खोजो मत। उसे विचारो मत। और न ही उसे कोई नाम ही दो। और यदि पाना है स्वयं को उसके ऊपर तो बस स्वयं को खोल लो आकाश की भांति विस्तीर्ण। (To find yourself on it, open yourself wide as the sky.)"
यही है राज - स्वयं को पाने का। और स्वयं को खोने से गुजरता है यह मार्ग।
मन बनाता है सीमायें। और आत्मा है असीम - आकाश की भांति असीम।
विचार करता है परिमाषायें। और प्राण मांगते हैं अनुभूति।
बुद्धि के पास है शब्द - कोरे शब्द। और सत्य है सदा मौन। बुद्धि चुप हो - शब्द हों शांत तो मार्ग यहीं है - अभी और यहीं - बस प्रत्येक के पैरों तले। और बुद्धि हो मुखर और विचार बुनते हों जाल तो मार्ग कहीं भी नहीं है।