Arvind Jain Notebooks, Vol 2

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year
Oct - Nov 1962
notes
41 pages
Notes on Life Awakening Talks
Collected by Arvind Jain.
see also
Osho's Manuscripts
Manuscripts ~ Notebooks Timeline Extraction


page no
original photo & enhanced photos
Hindi transcript
cover
40 Pages
Notes on Life Awakening Talks
By OSHO
Oct 62 To Nov 62
1
16 अक्टूबर 62 से - 31 अक्टूबर' 62 तक.
[16 से 23 तक जबलपुर * 26 से 31 तक गाडरवारा *]
जीवन के समग्र दर्शन कितने रहस्य और आनंद को अपने से व्यक्त करता है कि जीवन की परिपूर्ण सार्थकता अपने से दृष्टिगत हो जाती है | इस गहराई पर जाकर ही जो दीखता है -- उससे जीवन में समग्रता अपने से आती है | फिर मूलतः जो भी दीखना प्रारंभ होता है ---- उससे जीवन का दुख अपने से विसर्जित हो जाता है | इसके पूर्व तक जो भी जीवन के संबंध में जाना जाता है -— उससे मूल कारण जो दुख के होते हैं, वे विसर्जित हो ही नहीं सकते हैं | जो भी कारण जीवन को बिना देखे जाने जाते हैं, वे बहुत बाहरी और गौण होते हैं | उनसे कोई भी दुख के विसर्जन का प्रश्न नहीं उठता है |
यह इस कारण लिखा कि आचार्य श्री की जीवन-दृष्टि से संबंधित कुछ इस तरह के प्रसंग उठे कि लगा --- जो देखा गया है उससे मानव जीवन के शाश्वत प्रश्न अपने से हल हो जाते हैं |
प्रसंग आया था : ' किसी स्व-जन के मर जाने से जो दुख होता है, उससे मुक्त कैसे
2 - 3
हुआ जा सकता है ? '
जब किसी की मृत्यु होती है, तो लगता है कि बाहर कोई केंद्र टूट गया है और उसके चले जाने से दुख हो रहा है | यह समान्यतः प्रचलित बात है | इससे ही जो समझाया जाता है --- उसमें सब पुर्ववत ही जो Stock होता है, उसी में से समझाया जाता है | लेकिन जाना जाता है कि उनके समझाए गए से, मृत्‍यु का दुख विसर्जित नहीं होता है ---- वह बना ही रहता है |
भीतर -- अन्तर्द्रिष्टि से जब जाना जाता है -- तो स्पष्ट होता है कि मन हमारा खाली है -- वह भरना चाहता है | इससे ही सारे जीवन भर - भरने का काम चलता रहता है | कहीं धन से, मकान से, वस्तुओं से, संबंधियों से ---- ( पुत्र, पत्नी, मित्र, माँ, भाई, बहिन ), सबसे मन भरा रहना चाहता है | उसमें किसी भी प्रकार से कहीं भी न्यूनता मन को दुःखद लगती है | भरने में सुख है | वह हमेशा अतृप्त है | इससे नये-नये संबधों का और नये-
नये प्रकार का सुख मन निर्मित करता रहता है -- सोचता है कि कहीं तृप्ति होगी -- लेकिन पाया जाता है कि मन ठीक उतना का उतना ही अतृप्त बना हुआ है जितना पहिले था |
जब कोई स्व-जन मरता है, तो भीतर से उसके प्रति जो भरापन था - वह टूटता है | उस भरेपन में - सुरक्षा, संबंधित होता, सुविधाएँ प्राप्त थीं -- अब मृत्यु से असुरक्षा, एकाकीपन, असुविधाएँ -- निर्मित होती हैं -- इस कारण दुख है | दुख उसके चले जाने से नहीं है -- वह तो बाहर दिखता भर है --- मूलतः तो जो उसके चले जाने से ख़ालीपन आ गया है -- उसका दुख है | लेकिन भ्रम होता है कि -- सब दुख उसके चले जाने से ही होता है | जो भीतर, उसके रहने से सुख था -- और बाहर कारण था, जब चला जाता है तो भीतर के केंद्रों से टूट जाने के कारण दुख प्रतीत होता है --- और बाहर कारण वह दिखता है | यह बाहर का कारण दिखना स्वाभाविक है, लेकिन भ्रम है | इससे ही बाहर से जो भी समझाया जाता है
 
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वह सब दुख को नहीं मिटा पाता है | पश्चात जब खाली मन फिर कहीं भर जाता है -- तो मन को सुख होता है और फिर सब कुछ ठीक सामान्यतः चलता रहता है | ....
इससे मुक्त होना हो तो जानना चाहिए कि सारे संबंधों के बीच जागरूक हो रहना है -- और इससे जो बोध प्रारंभ होता है, वह व्यक्ति को आनंद तथा शांति के केंद्र से संयुक्त कर देता है | ध्यान के प्रयोग भी व्यक्ति को अपने स्वरूप से परिचित करा देते हैं -- और वह मन से पृथक खड़ा हो जाता है | वह अपने में समग्र हो जाता है -- परिपूर्ण हो आता है -- उसमें व्यक्तियों के संबंध में अपने को भरने का जो सुख होता है -- उसकी व्यर्तता दीख आती है -- तब ही पहिली बार व्यक्ति अकेला ही अपने में आनंद के परिपूर्ण बोध से भर जाता है और 'स्व-जन' की मृत्यु पर सहज करुणा से भरा होता है | इसमें सहज उसके प्रति प्रेम होता है और इस कारण उसकी आत्मा की आनंद और शांति
की शुभकामनाएँ करता है | यही वास्तविक जीवन-दृष्टि है, जो व्यक्ति को सहज जीवन के बीच मुक्त कर देती है | ...
इस दृष्टिकोण को आचार्य श्री ने एक दिवस कमला जी जैन के समक्ष रखा | आप प्रिंसिपल मुखर्जी की मृत्यु पर -- उनकी श्रीमती जी से मिलने गईं थीं -- उनको आपने बहुत दुखी पाया -- इससे सहानुभूति से भरीं थीं | आचार्य श्री ने कहा : ' अभी आप उनके मन का ख़ालीपन विसर्जित हो जाय - इसके लिए सुझाव का प्रयोग कीजिए -- बाद आप ध्यान को लाएँ -- तो सहज में सब ठीक हो जाएगा | '
बीच में कोई प्रसंग उपस्थित हुआ तो श्रीमती जी ने कहा : ' अचानक जब परिवार के सभी जन मृत हो जाते हैं -- तब भी व्यक्ति अपने से शांत हो जाता है -- तो क्या ध्यान से जो शांति आती है -- वह भी एसी ही होती है ? '
जब मन गहरे शोक में होता है, तो उससे भी मन में गहरे दुख के कारण
 
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शांति आ जाती है | लेकिन यह मन की सीमा में ही होता है | मन उपस्थित होता है | यह शांति कभी भी तोड़ी जा सकती है -- यह किसी कारण से आ गई थी -- यह अपने से नहीं थी | अपने में नहीं थी | यह शांति व्यक्तित्व को तोड़कर आती है | इसमें सृजन नहीं होता है |
ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने केंद्र से संयुक्त होकर जब शांत होता है तो यह शांति भीतर केंद्र में हो आने से - होती है | यह किसी कारण से नहीं है, यह तो अपने से है | अब सारी घटनाएँ बाहर जगत में घटती रहेंगी - लेकिन यह भीतर का केंद्र अछूता और अप्रभावित - परिपूर्ण शांत रहेगा |
एक दिवस पाठक जी (C.P.T.S.) आ उपस्थित थे | रात्रि के सुखद क्षण थे | सब कुछ अपने में - परिपूर्ण आनंद से भरा - स्तब्ध और शांत था | महापुरुषों के जीवन से संबंधित घटनाओं का उल्लेख पाठक जी ने किया | आपने संत एकनाथ और लोकमान्य तिलक के जीवन की घटनाओं का उल्लेख किया |
संत एकनाथ के जीवन में एक प्रसंग आता है -- एक समय आप उत्तर भारत से यात्री-दल के साथ थे और गंगा का पानी ले जाकर दक्षिण में शिव भगवान को चढ़ाने को लिए ले जाने को थे | राजस्थान के किसी स्थान तक आए कि बीच में एक गधा प्यास के कारण - छटपटा कर प्राण छोड़ रहा था | एकनाथ ने अपनी गंगाजली का पानी बड़े आनंद में भरकर पिलाया और आनंद से भर आए | लोगों ने समझाया - अरे यह क्या करते हो ! भगवान का पानी साधारण गधे को पिलाते हो | एकनाथ ने कहा : भगवान शिव गधे के रूप में आ गये हैं -- इससे अधिक आनंद की बात और क्या हो सकती है कि साक्षात
 
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भगवान की मैं सेवा कर पाया हूँ | यह है जीवन की संपूर्णता और एक का ही समस्त जगत में विस्तार है - उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति |
आचार्य श्री ने कहा : एकनाथ बहुत ही अलौकिक व्यक्ति थे और प्रभु चेतना से एक हो आए थे |
बाद आपने लोकमान्य तिलक के जीवन से एक घटना कही | पाठक जी ने कहा : महात्मा तिलक का बच्चा बीमार था | तिलक जी उस समय पत्र के लिए अग्रलेख लिख रहे थे | बीच संदेश दिया कि बच्चा काफ़ी अस्वस्थ है - गंभीर - चिंता जनक हालत है | लेकिन लोकमान्य तिलक अपने कार्य में व्यस्त थे | बाद - कुछ समय पश्चात बच्चा मर भी गया - लेकिन तिलक जी शांति से समाचार सुन लिया और फिर अपने कार्य में लग गए |
आचार्य श्री ने कहा : यह घटना दिखने में महान दिखती है और लोकमान्य की प्रशंसा के लिए कही जाती है | लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें -- तो स्पष्ट होगा कि लोकमान्य तिलक का
रस - अग्रलेख लिखकर अपने अहं को तृप्त करने का है | इस अमानवीय तल्लिनता में मन तृप्त होता है | अग्रलेख केवल सामयिक था और उसे बाद में भी लिखकर पूरा किया जा सकता था - आज कौन तिलक जी के अग्रलेख को जानता है | लेकिन उस पुत्र के मन में तिलक जी के न देखने जाने पर कितनी पीड़ा हुई होगी और पिता के प्रति उसके क्या भाव बने होंगे ? सहज जागरूकता और एक दिव्य जीवन दृष्टि के अभाव में ही यह संभव होता है | इस घटना को जानकार कोई यह कह सकता है कि लोकमान्य तिलक ने मृत्यु को कितनी शांति से स्वीकार किया -- लेकिन अग्रलेख यदि जला दिया जाता तो तिलक जी क्रुद्ध हो आते| घटनाओं का महत्व उनके लिए बना हुआ है -- और भीतर एक शांत जीवन का निर्माण नहीं हुआ है जिसके अभाव में ही उनके मन में एकांगी जीवन दृष्टि का निर्माण संभव हुआ |
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