Arvind Jain Notebooks, Vol 3: Difference between revisions
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:Notes of Osho's Visit to Chandrapur (MH, then called Chanda) | :Notes of Osho's Visit to Chandrapur (MH, then called Chanda). | ||
:The third book in a series of five. | |||
;see also | ;see also | ||
:[[Notebooks Timeline Extraction]] | :[[Notebooks Timeline Extraction]] | ||
:[[Arvind Jain Notebooks, Vol 1]] | |||
:[[Arvind Jain Notebooks, Vol 2]] | |||
:[[Arvind Jain Notebooks, Vol 4]] | |||
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:तो होती है -- पर साधु की तो कोई भी आशा शेष नहीं रहती है | मुझे चंदन सागर जी से पिछले वर्ष मिलना हुआ था -- कहा था आपने : पिछले | :तो होती है -- पर साधु की तो कोई भी आशा शेष नहीं रहती है | मुझे चंदन सागर जी से पिछले वर्ष मिलना हुआ था -- कहा था आपने : पिछले २० वर्ष पूर्व जब मैने सन्यास लिया था तो एक विश्वास था - आशा थी कि अब ठीक -- उस महान सत्ता में होकर अपने में परिपूर्ण शांत हो रहूँगा | पर अब केवल बोलता हूँ और बोलने में पिछला आत्म-विश्वास भी नहीं रहा है | पिछले वर्ष मैं जब मिला तो रोने लगे -- बोले ' मैने सब छोड़ा था कि कुछ पा लूँगा ' लेकिन जाना कि अब तो और भी ज़्यादा अशांत हो गया हूँ | मैने उन्हें कुछ प्रयोग बतलाए थे और अब इस बार ध्यान भी कराके आया हूँ -- बड़ी हिम्मत थी उनकी कि २०-२५ जनों के साथ ध्यान को बैठ सके | | ||
:हम अपने को संसार में उलझाए रखते हैं और सोन्चते हैं कि संसार को छोड़के सन्यास में शाँति होगी | लेकिन सन्यास में भी हम क्रियाओं में अपने को उलझा लेते हैं | मन अपनी दौड़ में फिर लग जाता है और पाया जाता है कि हम परिधि पर ही बने रहे | | :हम अपने को संसार में उलझाए रखते हैं और सोन्चते हैं कि संसार को छोड़के सन्यास में शाँति होगी | लेकिन सन्यास में भी हम क्रियाओं में अपने को उलझा लेते हैं | मन अपनी दौड़ में फिर लग जाता है और पाया जाता है कि हम परिधि पर ही बने रहे | | ||
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:देर को भी हो आते हैं - उसके परिणाम निश्चित हुआ करते हैं | अभी मैं पिछले | :देर को भी हो आते हैं - उसके परिणाम निश्चित हुआ करते हैं | अभी मैं पिछले ३ माहों में ३०० लोगों पर प्रयोग किया ' ध्यान ' का - आश्चर्यजनक परिणाम हुए | पाया गया कि जिन्हें वर्षों करने पर भी कुछ दिखा नहीं था - उन्हें ७ दिन ध्यान में बैठ के ही एक मार्ग अपने से दिख आया है और उसके निश्चित परिणाम होने को हैं | अनेक तथ्य आचार्य श्री ने दिए और कहा : सच में - बड़ी आश्चर्य की बात है कि यदि ठीक वैज्ञानिक विधि से कुछ किया जाय तो उसके स्पष्ट शीघ्र उचित परिणाम होते हैं | | ||
:इस संबंध में मुझे साधुओं से विरोध प्रत्यक्ष तो मिलता नहीं है -- बाद ज़रूर उनके द्वारा कुछ कहा जाता होगा | क्योंकि मुझे अनुभव आया कि प्रत्यक्ष मिलने पर बात समझ में आती है -- और विरोध उठता ही नहीं है - लेकिन बाद वे अवश्य अपनी बात को पुनः समझाते हैं | पर अब तो मैं - किसी से भी जो करता आया है - उसे छोड़ने के संबंध में - या उस संबंध में कुछ भी नहीं कहता | :इस संबंध में मुझे साधुओं से विरोध प्रत्यक्ष तो मिलता नहीं है -- बाद ज़रूर उनके द्वारा कुछ कहा जाता होगा | क्योंकि मुझे अनुभव आया कि प्रत्यक्ष मिलने पर बात समझ में आती है -- और विरोध उठता ही नहीं है - लेकिन बाद वे अवश्य अपनी बात को पुनः समझाते हैं | पर अब तो मैं - किसी से भी जो करता आया है - उसे छोड़ने के संबंध में - या उस संबंध में कुछ भी नहीं कहता | ||
:हूँ | केवल | :हूँ | केवल १५ दिन ध्यान के प्रयोग को कहता हूँ -- और बाद पाता हूँ कि जो भी उनका पहले का व्यर्थ था - वह अपने से गिर जाता है | यह वास्तविक जीवन-दृष्टि है -- इसके अभाव में सारा कुछ कचरा है | | ||
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:[ | :[ ७.१०.६२ चान्दा - चर्चा के मध्य श्री पारख जी - माँ साब पर व्यंग के भाव से विनोद -- बड़े ही सरल ढंग से करते रहे - और गंभीर चर्चा में अपनी सरसता का आनंद बिखेरते रहे ] | ||
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:अब यह सहज में किया गया विनोद न होकर व्यंग है और इससे दूसरे को दुख होता है | | :अब यह सहज में किया गया विनोद न होकर व्यंग है और इससे दूसरे को दुख होता है | | ||
:गाँधीजी के साथ विनोद प्रियता का उदाहरण ठीक से घटित होता है | एक समय मीटिंग | :गाँधीजी के साथ विनोद प्रियता का उदाहरण ठीक से घटित होता है | एक समय मीटिंग १९३८-३९ के समय -- काफ़ी विवादग्रस्त और अशांत तथा क्रुद्ध स्थिति में भी - गाँधीजी बिल्कुल शांत भाव से अपनी घड़ी को देखते यह उन्होंने २ - ३ बार किया | इसी बीच दरवाजे पर एक छोटा बच्चा -- खादी की टोपी, शेरवानी और चूड़ीदार पैजामा पहनकर आया - गाँधीजी ने उठकर स्वागत किया - सब लोग आश्चर्य में थे कि अब तो कोई आने को नहीं है -- गाँधीजी क्यों खड़े हुए ?— इतना ही नहीं -- बाद | ||
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:[ | :[ ७/१०/६२ रात्रि चान्दा ] | ||
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:वास्तव में हमारा जीवन दुखी है, यह सामान्य बात है | हम दुख के कारण ही आनंद की खोज करते हैं | पर आनंद का बोध व्यक्ति को नहीं है | वह तो केवल उसकी कल्पना करता है | पर कल्पना का आनंद - केवल कल्पित होता है | जो लक्ष्य है --- वह यह कि : | :वास्तव में हमारा जीवन दुखी है, यह सामान्य बात है | हम दुख के कारण ही आनंद की खोज करते हैं | पर आनंद का बोध व्यक्ति को नहीं है | वह तो केवल उसकी कल्पना करता है | पर कल्पना का आनंद - केवल कल्पित होता है | जो लक्ष्य है --- वह यह कि : | ||
: | :१. व्यक्ति दुख में है | | ||
: | :२. उससे उपर उठना चाहता है | | ||
: | :३. मार्ग खोजता है | | ||
: | :४. आनंद में स्थित होना चाहता है | | ||
:ये चार, आर्य सत्य हैं जो बुद्ध ने कहे | जिसे थोड़ी भी जीवन के संबंध में समझ है, उसे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति का जीवन दुख में है | विवेक युक्त व्यक्ति - इनसे उपर उठने को चाहता है | पर उपर उठने के लिए - मार्ग की बीच में बाधा खड़ी हो जाती है | ठीक मार्ग का | :ये चार, आर्य सत्य हैं जो बुद्ध ने कहे | जिसे थोड़ी भी जीवन के संबंध में समझ है, उसे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति का जीवन दुख में है | विवेक युक्त व्यक्ति - इनसे उपर उठने को चाहता है | पर उपर उठने के लिए - मार्ग की बीच में बाधा खड़ी हो जाती है | ठीक मार्ग का | ||
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:[ | :[७.१०.६२... रात्रि... चान्दा...] | ||
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:<u> | :<u>८-१०-६२</u> | ||
:सब कुछ आनंद - शांति तथा जीवन के स्वाभाविक क्रम में चले -- इसमें ही आचार्य जी की जीवन की अभिव्यक्ति है | जीवन का श्रेष्ठतम अभिव्यक्त होता है | चाहे -- अध्ययन हो, भाषण हो. चर्चा हो. यात्रा - घूमना - प्रासंगात्मक हँसी और विनोद के अवसर -- सब कुछ सप्राण और जीवित हैं | सुयोग और सौभाग्य है - जिनको निकटता मिल पाती है | इतनी गहराई से जीवन को समझना -- और उसमें एक रस हो रहना -- वही जान सकता है जिसने थोड़ा भी वैसा जिया हो | अन्यथा कितनी जीवन में विकृति और नाटकीय रूपों में -- मानवीय अभिव्यक्ति होती है -- इसे सभी जन आसानी से जानते है | | :सब कुछ आनंद - शांति तथा जीवन के स्वाभाविक क्रम में चले -- इसमें ही आचार्य जी की जीवन की अभिव्यक्ति है | जीवन का श्रेष्ठतम अभिव्यक्त होता है | चाहे -- अध्ययन हो, भाषण हो. चर्चा हो. यात्रा - घूमना - प्रासंगात्मक हँसी और विनोद के अवसर -- सब कुछ सप्राण और जीवित हैं | सुयोग और सौभाग्य है - जिनको निकटता मिल पाती है | इतनी गहराई से जीवन को समझना -- और उसमें एक रस हो रहना -- वही जान सकता है जिसने थोड़ा भी वैसा जिया हो | अन्यथा कितनी जीवन में विकृति और नाटकीय रूपों में -- मानवीय अभिव्यक्ति होती है -- इसे सभी जन आसानी से जानते है | | ||
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:विशालता के प्रति हो ही नहीं सकता है | इसी कारण अपने जो भेद की बात राष्ट्र और पड़ौसी राष्ट्रों के लिए कही -- वह संभव हो सकी | एक नारी सीमित क्षेत्र मे तो अपने को बाँध सकती है -- लेकिन वह संपूर्ण कम्युनिज्म के प्रति प्रेम से उस सिद्धांत को विशाल रूप में नहीं संभाल सकती है | इसी के सन्दर्भ में जो ' नारी समानाधिकार ' की बात चलती है - उस पर चर्चा का हो जाना स्वाभाविक था | कहा : ' नारी को जैसा कहा जाता है कि पहले दबाया गया उससे काफ़ी भारतीय नारी पिछड़ गई है - पश्चिमी देशों में तो नारी काफ़ी प्रगती पथ पर है -- और पुरुषों के ही समान सारे कार्यों में भाग लेती है |' इसमें कोई मनोवैज्ञानिक तथ्य को दृष्टिगत नहीं रखा गया है -- और इस कारण इसमें सैद्धांतिक बड़ी भारी ग़लती है | नारी तो केवल अपने परिवार के सृजन के लिए -- अपना सर्वस्व समर्पण करती है | उसकी जो अपरिवर्तित मनोवैज्ञानिक जीवन प्रक्रिया है - वह यह कि नारी एक पुरुष से संतुष्ट होती है -- उसमें उसे | :विशालता के प्रति हो ही नहीं सकता है | इसी कारण अपने जो भेद की बात राष्ट्र और पड़ौसी राष्ट्रों के लिए कही -- वह संभव हो सकी | एक नारी सीमित क्षेत्र मे तो अपने को बाँध सकती है -- लेकिन वह संपूर्ण कम्युनिज्म के प्रति प्रेम से उस सिद्धांत को विशाल रूप में नहीं संभाल सकती है | इसी के सन्दर्भ में जो ' नारी समानाधिकार ' की बात चलती है - उस पर चर्चा का हो जाना स्वाभाविक था | कहा : ' नारी को जैसा कहा जाता है कि पहले दबाया गया उससे काफ़ी भारतीय नारी पिछड़ गई है - पश्चिमी देशों में तो नारी काफ़ी प्रगती पथ पर है -- और पुरुषों के ही समान सारे कार्यों में भाग लेती है |' इसमें कोई मनोवैज्ञानिक तथ्य को दृष्टिगत नहीं रखा गया है -- और इस कारण इसमें सैद्धांतिक बड़ी भारी ग़लती है | नारी तो केवल अपने परिवार के सृजन के लिए -- अपना सर्वस्व समर्पण करती है | उसकी जो अपरिवर्तित मनोवैज्ञानिक जीवन प्रक्रिया है - वह यह कि नारी एक पुरुष से संतुष्ट होती है -- उसमें उसे | ||
: | :सुरक्षा है और वह पुरुष को अपना सारा प्रेम दे पाती है। इसी कारण वह पुरुष के ज्यादा समीप रहने को उत्सुक है। यह नारी की दिशा है - इस में परिवर्तन करके - बिना वैज्ञानिक समझ के - बड़े खतरे पाश्चात्य नारी को उठाने पड़े हैं। पुरुषों के जैसे होने में, नारी के जीवन की दौड़ पुरुषों की ओर चली - और इस कारण नारीत्व को वह खो बैठी। पुरुषत्व को पाने से तो वह रही। परिणाम में बहुत व्यथित है। इसका परिणाम यह भी हुआ कि वह किसी एक पुरुष पर समर्पित नहीं हो पाती - और जब भी किसी पुरुष के प्रेम में होती है - पूरी तरह प्रेम नहीं कर पाती है। कभी भी तलाक के बाद - फिर वही स्थिति होती है - और मात्र वह पुरुष के हाथ का खिलौना बन गई है। इस स्वतंत्रता से नारी अतृप्त है - लेकिन पुरुष संतुष्ट है। भारत में भी अब यह हवा बढ़ रही है। नारी में जो अपरिवर्तनीय तत्व है उसे दृष्टि में रखकर - पूर्णता की ओर बढ़ने देने में - जो भी बाह्य अधिकार उसे प्राप्त हों - यह उचित है। उसे आर्थिक, राजनैतिक | ||
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| [[image:man1362.jpg|400px]] | | [[image:man1362.jpg|400px]] | ||
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:कहा आचार्य श्री ने : यह ठीक है | लेकिन आपको जानना है कि मन की यह बड़ी कृपा है कि जब तक उसे योग्य स्थान नहीं मिलता है -- वह बैठता ही नहीं है | यदि मन कहीं भी शांत और स्थिर हो जाता तो -- फिर वह किसी भी तुच्छ में स्थिर हो जाता -- धन में, यश में, मान-सम्मान में | लेकिन मन जब तक प्रभु-चेतना से संयुक्त नहीं होता है -- वह रुकता ही नहीं है | यह तो विशेष कृपा है उसकी कि वह श्रेष्ठतम क्षेत्र में -- आनंद तथा शांति में प्रतिष्ठित होता है | .... | :कहा आचार्य श्री ने : यह ठीक है | लेकिन आपको जानना है कि मन की यह बड़ी कृपा है कि जब तक उसे योग्य स्थान नहीं मिलता है -- वह बैठता ही नहीं है | यदि मन कहीं भी शांत और स्थिर हो जाता तो -- फिर वह किसी भी तुच्छ में स्थिर हो जाता -- धन में, यश में, मान-सम्मान में | लेकिन मन जब तक प्रभु-चेतना से संयुक्त नहीं होता है -- वह रुकता ही नहीं है | यह तो विशेष कृपा है उसकी कि वह श्रेष्ठतम क्षेत्र में -- आनंद तथा शांति में प्रतिष्ठित होता है | .... | ||
:<u> | :<u>९-१०-६२</u> दोपहर | ||
:[ यह प्रसंग - स्टेट बॅंक चान्दा के एजेंट और केशियर महोदय के समक्ष - अप्पलवार जी के साथ -- उठा ] | :[ यह प्रसंग - स्टेट बॅंक चान्दा के एजेंट और केशियर महोदय के समक्ष - अप्पलवार जी के साथ -- उठा ] | ||
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:सम्मोहन का उपयोग बताते हुए आचार्य श्री ने कहा : सम्मोहन | :सम्मोहन का उपयोग बताते हुए आचार्य श्री ने कहा : सम्मोहन | ||
: | :१. मन की शक्तियों को जगाने में | | ||
: | :२. बीमारी ठीक करने में | ||
: | :३. मन को ठीक करने में| | ||
:एवं | :एवं ४. मन के बाहर जाने में | ||
:सहायक है | इसका उपयोग यदि उचित न हुआ तो -- इससे लोग सिद्धियाँ प्राप्त करके -- जीवन में अपनी वासना पूर्ति किया करते हैं | लेकिन यह सम्मोहन का ग़लत उपयोग हैं - लेकिन सामान्यतः यही प्रचलित है | मैं सम्मोहन का उपयोग केवल मन के बाहर जाने में करता हूँ -- और जैसे ही हम मन के बाहर जाते हैं कि व्यक्ति अपने को ध्यान में पाता हैं | | :सहायक है | इसका उपयोग यदि उचित न हुआ तो -- इससे लोग सिद्धियाँ प्राप्त करके -- जीवन में अपनी वासना पूर्ति किया करते हैं | लेकिन यह सम्मोहन का ग़लत उपयोग हैं - लेकिन सामान्यतः यही प्रचलित है | मैं सम्मोहन का उपयोग केवल मन के बाहर जाने में करता हूँ -- और जैसे ही हम मन के बाहर जाते हैं कि व्यक्ति अपने को ध्यान में पाता हैं | | ||
Line 307: | Line 311: | ||
:व्रत पूर्ण नहीं होता है | वरन मन को शांति से बिना किसी विरोध की स्थिति से -- ठीक से सुझाव दिए जायें तो सारा कुछ अपने से पूर्ण हो जाता है | सरलता से सुझाव के परिणाम -- जितने प्रभावशाली होते हैं -- संकल्प के होने की बात ही नहीं होती है | | :व्रत पूर्ण नहीं होता है | वरन मन को शांति से बिना किसी विरोध की स्थिति से -- ठीक से सुझाव दिए जायें तो सारा कुछ अपने से पूर्ण हो जाता है | सरलता से सुझाव के परिणाम -- जितने प्रभावशाली होते हैं -- संकल्प के होने की बात ही नहीं होती है | | ||
:संकल्प करके आप सुबह उठने का विचार करें -- तो आपका विरोधी मन आपको -- उठने से रोक देगा | लेकिन सहज आप अपने मन को सुझाव दें कि " सुबह ठीक | :संकल्प करके आप सुबह उठने का विचार करें -- तो आपका विरोधी मन आपको -- उठने से रोक देगा | लेकिन सहज आप अपने मन को सुझाव दें कि " सुबह ठीक ४ बजे नींद खुल जाने को है " तो सुझाव काम करेगा - और आपकी नींद सुबह आसानी से खुल जायेगी | माँ-साब ने कहा : रजनीश ' श्रद्धा और सम्मोहन में क्या भेद है ?' | ||
:मन जिन विचारों में हुआ करता है, और जब कभी उसे उस तरह के विचारों को सुनने का संयोग आता है -- तो वह उसके प्रति श्रद्धा से भर जाता है | श्रद्धा में आकर्षण एक ओर से होता है | प्रेम में आकर्षण दोनो ओर से होता है | जैसा कि रामकृष्ण और विवेकानंद के साथ हुआ था | जैसे ही रामकृष्ण | :मन जिन विचारों में हुआ करता है, और जब कभी उसे उस तरह के विचारों को सुनने का संयोग आता है -- तो वह उसके प्रति श्रद्धा से भर जाता है | श्रद्धा में आकर्षण एक ओर से होता है | प्रेम में आकर्षण दोनो ओर से होता है | जैसा कि रामकृष्ण और विवेकानंद के साथ हुआ था | जैसे ही रामकृष्ण | ||
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:के साथ हमारा मोह संयुक्त हो जाता है -- और तब फिर बात हमें दुखकर हो जाती है | .... | :के साथ हमारा मोह संयुक्त हो जाता है -- और तब फिर बात हमें दुखकर हो जाती है | .... | ||
: | :९-१०-६२ रात्रि | ||
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:[ इस चर्चा में | :[ इस चर्चा में १० की रात्रि का प्रसंग और साथ ही ९ की रात्रि का प्रसंग है -- लेकिन सतत धाराप्रवाह के असीम स्त्रोत में से केवल यह इतना ही है जितना सागर में से बूँद ] | ||
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:एक नवयुवक थे | पढ़ा होगा -- और | :एक नवयुवक थे | पढ़ा होगा -- और २० वर्ष यहाँ - वहाँ के कार्यों में लगाए थे - प्रभु को पाने की भी तीव्र आकांक्षा थी | लेकिन कुछ मिला नहीं था | | ||
:पूछा : ' साधु कितने प्रकार के होते हैं ? ' | :पूछा : ' साधु कितने प्रकार के होते हैं ? ' | ||
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* | * | ||
:<u> | :<u>९-१०-६२ प्रभात</u> | ||
:श्रीमती यशोदा जी के यहाँ सुबह के मनोरम वातावरण में एक गोष्ठी - राष्ट्र भाषा प्रचार समिति के अंतर्गत आयोजित थी | आचार्य श्री का परिचय दर्शन शास्त्री की तरह कराया गया | | :श्रीमती यशोदा जी के यहाँ सुबह के मनोरम वातावरण में एक गोष्ठी - राष्ट्र भाषा प्रचार समिति के अंतर्गत आयोजित थी | आचार्य श्री का परिचय दर्शन शास्त्री की तरह कराया गया | | ||
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| 38 - 39 | | 38 - 39 | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
:<u> | :<u>१०-१०-६२ प्रभात</u> | ||
:अप्पलवार जी का प्रश्न था : " सोने में और ध्यान की प्रक्रिया में क्या भेद है ? " | :अप्पलवार जी का प्रश्न था : " सोने में और ध्यान की प्रक्रिया में क्या भेद है ? " | ||
:सोने में व्यक्ति अपने अचेतन से होकर मुश्किल से केवल | :सोने में व्यक्ति अपने अचेतन से होकर मुश्किल से केवल ८-१० मिनिट के लिए विचारों की पार की अवस्था में - जिसे हम सुषुप्ति कहते हैं -- उसमें पहुँचता है | यह सुषुप्ति ध्यान की अवस्था ही है -- और व्यक्ति अपने केंद्र तक पहुँच पाता है | लेकिन यह बहुत स्वस्थ व्यक्ति को ८-१० मिनिट का समय मिल पाता है -- शेष तो इससे कम समय के लिए अपने केंद्र तक पहुँच पाते हैं | सोने के बाद जो आनंद का बोध होता है -- वह केवल इसी कारण से होता है | इससे ' योग ' को यह बात लगी कि जिस केंद्र से हम नींद में संयुक्त होते हैं -- उससे जाग्रति में ही क्यों न संयुक्त हुआ जाय और इस कारण ही योग के पास उस स्थिति में हो आने के लिए हमेशा से मार्ग उपलब्ध रहे हैं | इस स्थिति के लिए आचार्य श्री ने शरीर के ५ कोषों को चित्र की सहयता से स्पष्ट चित्रण किया और ठीक से स्थिति का वैज्ञानिक | ||
:विवेचन किया | | :विवेचन किया | | ||
: | : ”हूँ” | ||
: /\ | : /\ | ||
: / \ ——-> Gravitational Area | : / \ ——-> Gravitational Area | ||
: मैं हूँ / ( | : मैं हूँ / (५) \ ——> आनंदमय कोष | ||
: /---------\ | : /---------\ | ||
: / ( | : / (४) \ ——> विज्ञानमय कोष | ||
: /---------------\ | : /---------------\ | ||
: चेतन <— /—1 | 2—\—> अचेतन | : चेतन <— /—1 | 2—\—> अचेतन | ||
: / |( | : / |(३) \ ——> मनोमय कोष | ||
: /------------------------\ | : /------------------------\ | ||
: / ( | : / (२) \ ——> प्राणमय कोष | ||
: /------------------------------\ | : /------------------------------\ | ||
: / ( | : / (१) \ ——> अन्नमय कोष | ||
: /______________________\ | : /______________________\ | ||
Line 501: | Line 505: | ||
* | * | ||
:<u> | :<u>११-१०-६२ रात्रि</u> | ||
:' आपकी जो साधना पद्धति है -- उसका क्या व्यावहारिक जीवन से संबंध है ? - यदि व्यक्ति निष्क्रिय हो गया तो बाह्य जगत में उसका क्या होगा ? ' प्रश्न था यशोदा बाई का | | :' आपकी जो साधना पद्धति है -- उसका क्या व्यावहारिक जीवन से संबंध है ? - यदि व्यक्ति निष्क्रिय हो गया तो बाह्य जगत में उसका क्या होगा ? ' प्रश्न था यशोदा बाई का | | ||
Line 521: | Line 525: | ||
:नागार्जुन के पास एक रात चोर आया बाहर खड़ा वह साधु के सोने की प्रतीक्षा करता था -- जिस स्वर्ण कलश के लिए लेने वह आया था -- नागार्जुन ने उसे बाहर खिड़की से फेंक -- चोर के पास तक पहुँचा दिया | चोर आश्चर्य में था | सोचा बढ़िया आदमी है -- बोला : साधुजी, आप तो बहुत अजीब हैं -- आपने | :नागार्जुन के पास एक रात चोर आया बाहर खड़ा वह साधु के सोने की प्रतीक्षा करता था -- जिस स्वर्ण कलश के लिए लेने वह आया था -- नागार्जुन ने उसे बाहर खिड़की से फेंक -- चोर के पास तक पहुँचा दिया | चोर आश्चर्य में था | सोचा बढ़िया आदमी है -- बोला : साधुजी, आप तो बहुत अजीब हैं -- आपने | ||
:तो मेरी चोरी ले जाने की इच्छा ही स्वर्ण कलश के प्रति समाप्त कर दी | नागार्जुन ने कहा : तुम कब तक प्रतीक्षा करते ? - यह पाप भी मैं भला क्यों लेता ? चोर बोला : अच्छा, मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूँ | मुझे भी क्या मुक्ति मिल सकती है -- लेकिन शर्त यह है कि चोरी भर छोड़ने को मत कहना | नागार्जुन ने कहा : वे असाधु होंगे जो कुछ भी छोड़ने को कहते हैं | मैं तो तुम्हें यह ध्यान की प्रक्रिया बताया हूँ, इसे करो - | :तो मेरी चोरी ले जाने की इच्छा ही स्वर्ण कलश के प्रति समाप्त कर दी | नागार्जुन ने कहा : तुम कब तक प्रतीक्षा करते ? - यह पाप भी मैं भला क्यों लेता ? चोर बोला : अच्छा, मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूँ | मुझे भी क्या मुक्ति मिल सकती है -- लेकिन शर्त यह है कि चोरी भर छोड़ने को मत कहना | नागार्जुन ने कहा : वे असाधु होंगे जो कुछ भी छोड़ने को कहते हैं | मैं तो तुम्हें यह ध्यान की प्रक्रिया बताया हूँ, इसे करो - ७ दिन बाद आना -- क्या होता है ? चोर ने ध्यान किया - पाया कि वह इतना शांत हो आया है कि एक अंधेरी रात जब वह चोरी करने गया - तो उसके लिए चोरी संभव ही न हो सकी | वापिस आकर बोला : आपने तो बुरा किया - चोरी अपने से छूट गई | साधु बोला : यह तो स्वाभाविक था -- अब जो अच्छा लगे - करो | | ||
:ठीक चेतना की गहराई में तो आए व्यक्ति की सारी अशांति अपने से विसर्जित हो जाती है | अब कोई पूछे कि शांति का क्या उपयोग है? - तो उसे जानना है कि वह तो अपने में है -- | :ठीक चेतना की गहराई में तो आए व्यक्ति की सारी अशांति अपने से विसर्जित हो जाती है | अब कोई पूछे कि शांति का क्या उपयोग है? - तो उसे जानना है कि वह तो अपने में है -- | ||
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:के संबंध में भ्रमित हैं | जैसे-ही ' जो है ' उसे जान लिया जाता है -- तो अपने से मानना हो जाता है | पहीले तो बात जान लेने की है बाद मानना तो अपने से होता है | तब जो माना जायगा - वह ही केवल अर्थ का है | अभी तो सारा कुछ बिना अर्थ का है | बाद, पंडित जी को ध्यान की प्रक्रिया सुझाई और अपेक्षा की गई कि यदि वे करते है -- तो परिणाम एकदम ठीक आने को हैं | .. | :के संबंध में भ्रमित हैं | जैसे-ही ' जो है ' उसे जान लिया जाता है -- तो अपने से मानना हो जाता है | पहीले तो बात जान लेने की है बाद मानना तो अपने से होता है | तब जो माना जायगा - वह ही केवल अर्थ का है | अभी तो सारा कुछ बिना अर्थ का है | बाद, पंडित जी को ध्यान की प्रक्रिया सुझाई और अपेक्षा की गई कि यदि वे करते है -- तो परिणाम एकदम ठीक आने को हैं | .. | ||
:दिग्रस - पूज्य श्री श्यामसुंदर जी शुक्ला, श्री भीकमचन्द जी कोठारी और श्री ईश्वरमल जी मेहता, श्री गांगजी भाई तथा अन्य वहाँ के सहयोगियों के आधार पर दो आम सभाएँ और एक छोटी गोष्ठी का आयोजन हुआ | यहाँ की लगभग | :दिग्रस - पूज्य श्री श्यामसुंदर जी शुक्ला, श्री भीकमचन्द जी कोठारी और श्री ईश्वरमल जी मेहता, श्री गांगजी भाई तथा अन्य वहाँ के सहयोगियों के आधार पर दो आम सभाएँ और एक छोटी गोष्ठी का आयोजन हुआ | यहाँ की लगभग ५० % संख्या सभाओं में उपस्थित थी - जो विलक्षण था | इतने प्रेम से आप सबने सुना कि अनेकों लोग ध्यान के लिए उत्सुक हो आए हैं | अब | ||
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:आचार्य श्री ने कहा : एसा आप सोंच सकते हैं | क्योंकि आप कभी भी सोचने के बाहर हो ही नहीं पाये है | जब तक विचार हैं - तब तक कुछ भी बोध होना संभव नहीं है | विचारों को शांत - साक्षी होकर आप देखेंगे और पायेंगे कि जिसे पूरे जीवन भर न जान सका - वह तो क्षण भर में ही घटित हो गया है | | :आचार्य श्री ने कहा : एसा आप सोंच सकते हैं | क्योंकि आप कभी भी सोचने के बाहर हो ही नहीं पाये है | जब तक विचार हैं - तब तक कुछ भी बोध होना संभव नहीं है | विचारों को शांत - साक्षी होकर आप देखेंगे और पायेंगे कि जिसे पूरे जीवन भर न जान सका - वह तो क्षण भर में ही घटित हो गया है | | ||
:बाकी आपकी समस्त रचना को देखा है उसमें मुझे केवल प्रतिक्रिया और क्रुद्धता नज़र आई है - यह मुझे | :बाकी आपकी समस्त रचना को देखा है उसमें मुझे केवल प्रतिक्रिया और क्रुद्धता नज़र आई है - यह मुझे ८ वर्षों पूर्व ही आपसे मिलके लगा था और तब ही से मेरा मन आपको सीधा कहने को था | इस सबसे कुछ मन के पर जगत में कोई उतर नहीं सका है | | ||
:बीच-बीच महात्माजी केवल तर्क युक्त प्रसंग उपस्थित करते रहे और नाराजी में भरकर बोल उठते थे | एक प्रसंग में तो बोले | :बीच-बीच महात्माजी केवल तर्क युक्त प्रसंग उपस्थित करते रहे और नाराजी में भरकर बोल उठते थे | एक प्रसंग में तो बोले | ||
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:की चर्चा की है -प्रयोग करते ही आप अपने से जानेंगे | ... | :की चर्चा की है -प्रयोग करते ही आप अपने से जानेंगे | ... | ||
:[ अब जीवन में पग रखने वाले नव-युवकों और अन्य सभी के समक्ष विचारणीय हो आता है कि जीवन के | :[ अब जीवन में पग रखने वाले नव-युवकों और अन्य सभी के समक्ष विचारणीय हो आता है कि जीवन के ७० वर्ष पर कर जाने के बाद जीर्ण-शीर्ण अवस्था में बीमारी के कारण हो आने से - वैसे ही महात्मा जी दया के पात्र हो आए हैं | जीवन में जिसे बहुत क्रांतिकारी और मूल्य का समझकर किया था -- उससे कुछ हुआ नहीं और इस स्थिति में सारे संबंध विलग हो गये - इस सारी स्थिति में मन की पूरी जकड़ - एक महात्मा का जीवन इस तरह का होगा - तो फिर इससे अधिक करुणा जनक क्या हो सकता है ! -- कौन कल्पना कर सकता है ? ] | ||
:पश्चात भी श्री पूनम चन्द जी रांका से आचार्य श्री की चर्चा हुई | | :पश्चात भी श्री पूनम चन्द जी रांका से आचार्य श्री की चर्चा हुई | | ||
:रांका जी - बड़े लोगों के साथ रह चुके हैं | मौन भी | :रांका जी - बड़े लोगों के साथ रह चुके हैं | मौन भी ७२ दिन का रख चुके हैं, उपवास | ||
:भी लंबे समय तक के लिए हैं -- सुबह से किसी भी स्थान पर जाकर सफाई कर आते हैं -- साधारण गृहस्थ थे अभी तक -- | :भी लंबे समय तक के लिए हैं -- सुबह से किसी भी स्थान पर जाकर सफाई कर आते हैं -- साधारण गृहस्थ थे अभी तक -- ३ अक्तूबर को ही श्रीमती धनवती देवी रांका - ( धर्म पत्नी ) का देहांत हुआ -- इससके अतिरिक्त हमेशा स्पष्टवादी और साफ कहने वालों में से हैं -- सामान्य झोपड़ा बनाया हुआ है -- उसी में कोई भी कभी तक रह सकता है | सब हाथ से करने के साधन रखे हैं -- अनाज पीसिये, पानी भारिए, खाना पकाईए और खाइए -- तथा प्रार्थना एवम् सूत कातते हुए -- आप रांका जी की झोपड़ी में रहे आइए -- कोई छुआछूत की बात ही नहीं है | | ||
:आपने अपने जीवन-क्रम को पूरी तरह से बनाया और पाया कि उन्होंने विनोबा जी के साथ भी रहा है, उनसे मौन रहकर - ध्यान भी सीखा | लेकिन परिणाम में शांत व्यक्तित्व का निर्माण नहीं हुआ है | | :आपने अपने जीवन-क्रम को पूरी तरह से बनाया और पाया कि उन्होंने विनोबा जी के साथ भी रहा है, उनसे मौन रहकर - ध्यान भी सीखा | लेकिन परिणाम में शांत व्यक्तित्व का निर्माण नहीं हुआ है | |
Latest revision as of 16:52, 27 July 2020
- author
- Arvind Kumar Jain
- year
- Oct 1962
- notes
- 65 pages
- Notes of Osho's Visit to Chandrapur (MH, then called Chanda).
- The third book in a series of five.
- see also
- Notebooks Timeline Extraction
- Arvind Jain Notebooks, Vol 1
- Arvind Jain Notebooks, Vol 2
- Arvind Jain Notebooks, Vol 4
- Arvind Jain Notebooks, Vol 5