Letter written on 9 Jan 1971 (YPrem): Difference between revisions
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Osho wrote many letters in Hindi to [[Ma Yoga Prem (Indian)|Ma Yoga Prem]] which were published in various letter collections. This one is dated 9th January 1971 and was published in ''[[Antarveena (अंतर्वीणा)]]'' as letter #141. It is a long letter, with the first 60% or so missing from a pdf of the earliest edition the wiki uses for research. | Osho wrote many letters in Hindi to [[Ma Yoga Prem (Indian)|Ma Yoga Prem]] which were published in various letter collections. This one is dated 9th January 1971 and was published in ''[[Antarveena (अंतर्वीणा)]]'' as letter #141. It is a long letter, with the first 60% or so missing from a pdf of the earliest edition the wiki uses for research. | ||
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Logo in the upper right corner is a "standard" [[Jeevan Jagriti Kendra]] logo in two colours. The whole letter is written in black ink. | Logo in the upper right corner is a "standard" [[Jeevan Jagriti Kendra]] logo in two colours. The whole letter is written in black ink. | ||
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acharya rajneesh | |||
A-1 WOODLAND PEDDAR ROAD BOMBAY-26. PHONE: 382184 | |||
प्रिय योग प्रेम,<br> | |||
प्रेम। नासमझी से वरदान भी अभिशॉप होजाते हैं। | |||
और समझ से अभिशॉप भी वरदान। | |||
इसलिए, असली सवाल अभिशॉप या वरदान का नहीं है; असली सवाल है <u>उसकी कीमिया</u> (Alchemy) को जानने का जो कि काटों को फूल में रूपांतरित कर देती है। | |||
कोयला ही रासायनिक प्रक्रिया से गुजरकर हीरा होजाता है। | |||
सन्यास कोयला जैसी चेतना को हीरा जैसी बनाने की ही प्रक्रिया है। | |||
सन्यास के रसायनशास्त्र का मूल सूत्र तुझे कहता हूँ। | |||
सीधा नहीं कहुँगा। | |||
कहुँगा जरूर -- लेकिन फिर भी तुझे उसे <u>खोजना</u> भी होगा। | |||
क्योंकि, परोक्ष इशारा भी उस सूत्र की अभिव्यक्ति का अनिवार्य अंग है। | |||
कुछ महामंत्र है,जो कि <u>सीधे कहे ही नहीं जासकते</u> हैं। | |||
<u>या कहे जावे तो समझे नहीं जासकते हैं।</u> | |||
<u>या समझे भी जावे तो उनमें निहित काव्य खोजाता है।</u> | |||
<u>और वह काव्य ही उनकी आत्मा है।</u> | |||
एकनाथ रोज भोर में गोदावरी में स्नान करने जाते थे। | |||
वे स्नान करके लौटते तो एक व्यक्ति उनपर थूंक देता, वे तो हंसते और पुनः स्नान कर आते। | |||
धर्म के ठेकेदारों ने उस व्यक्ति को किराये पर रखा था। | |||
लेकिन, एक शर्त थी कि एकनाथ क्रोधित हों तो ही उसे पुरस्कार मिल सकता था। | |||
एक दिन -- दो दिन -- सप्ताह -- दो सप्ताह -- और उस व्यक्ति की मेहनत व्यर्थ ही जारही थी। | |||
अंततः उसने आखरी कोशिश की। | |||
और एक दिन एकनाथ पर १०७ बार थूकां। | |||
एकनाथ बार बार हंसते और पुनः स्नान कर आते। | |||
फिर उसने १०८ वीं बार भी थूकां। | |||
एकनाथ हंसे और पुनः स्नान कर आये। | |||
और फिर उसके पास आकर खड़े होगये -- इस आशा और प्रतीक्षा में कि शायद वह और भी थूंके। | |||
लेकिन, वह गरीब बुरी तरह थक गया था ! | |||
थूंकते--थूंकते उसका मुंह भी सूख गया था। | |||
एकनाथ ने थोड़ी देर प्रार्थनापूर्ण मन से प्रतीक्षा की और फिर बोलेः " किन शब्दोंमें तुम्हारा धन्यवाद करूँ ? मैं पहले गोदावरी की गोद का आनंद एक ही बार लेता था; फिर तुम्हारे सत्प्रेरणा से दो बार लेने लगा। और आज का तो कहना ही क्या है -- १०८ बार गोदावरी स्नान का पुण्य मिंला है ! श्रम तुम्हारा है और फल मैं ले रहा हूँ !" | |||
रजनीश के प्रणाम | |||
९/१/१९७१ | |||
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Revision as of 06:02, 22 March 2020
Osho wrote many letters in Hindi to Ma Yoga Prem which were published in various letter collections. This one is dated 9th January 1971 and was published in Antarveena (अंतर्वीणा) as letter #141. It is a long letter, with the first 60% or so missing from a pdf of the earliest edition the wiki uses for research.
Letterhead reads:
- acharya rajneesh on top in lower-case
- A-1 WOODLAND PEDDAR ROAD BOMBAY-26 PHONE : 382184 in ALL-CAPS
Logo in the upper right corner is a "standard" Jeevan Jagriti Kendra logo in two colours. The whole letter is written in black ink.
acharya rajneesh A-1 WOODLAND PEDDAR ROAD BOMBAY-26. PHONE: 382184 प्रिय योग प्रेम, और समझ से अभिशॉप भी वरदान। इसलिए, असली सवाल अभिशॉप या वरदान का नहीं है; असली सवाल है उसकी कीमिया (Alchemy) को जानने का जो कि काटों को फूल में रूपांतरित कर देती है। कोयला ही रासायनिक प्रक्रिया से गुजरकर हीरा होजाता है। सन्यास कोयला जैसी चेतना को हीरा जैसी बनाने की ही प्रक्रिया है। सन्यास के रसायनशास्त्र का मूल सूत्र तुझे कहता हूँ। सीधा नहीं कहुँगा। कहुँगा जरूर -- लेकिन फिर भी तुझे उसे खोजना भी होगा। क्योंकि, परोक्ष इशारा भी उस सूत्र की अभिव्यक्ति का अनिवार्य अंग है। कुछ महामंत्र है,जो कि सीधे कहे ही नहीं जासकते हैं। या कहे जावे तो समझे नहीं जासकते हैं। या समझे भी जावे तो उनमें निहित काव्य खोजाता है। और वह काव्य ही उनकी आत्मा है। एकनाथ रोज भोर में गोदावरी में स्नान करने जाते थे। वे स्नान करके लौटते तो एक व्यक्ति उनपर थूंक देता, वे तो हंसते और पुनः स्नान कर आते। धर्म के ठेकेदारों ने उस व्यक्ति को किराये पर रखा था। लेकिन, एक शर्त थी कि एकनाथ क्रोधित हों तो ही उसे पुरस्कार मिल सकता था। एक दिन -- दो दिन -- सप्ताह -- दो सप्ताह -- और उस व्यक्ति की मेहनत व्यर्थ ही जारही थी। अंततः उसने आखरी कोशिश की। और एक दिन एकनाथ पर १०७ बार थूकां। एकनाथ बार बार हंसते और पुनः स्नान कर आते। फिर उसने १०८ वीं बार भी थूकां। एकनाथ हंसे और पुनः स्नान कर आये। और फिर उसके पास आकर खड़े होगये -- इस आशा और प्रतीक्षा में कि शायद वह और भी थूंके। लेकिन, वह गरीब बुरी तरह थक गया था ! थूंकते--थूंकते उसका मुंह भी सूख गया था। एकनाथ ने थोड़ी देर प्रार्थनापूर्ण मन से प्रतीक्षा की और फिर बोलेः " किन शब्दोंमें तुम्हारा धन्यवाद करूँ ? मैं पहले गोदावरी की गोद का आनंद एक ही बार लेता था; फिर तुम्हारे सत्प्रेरणा से दो बार लेने लगा। और आज का तो कहना ही क्या है -- १०८ बार गोदावरी स्नान का पुण्य मिंला है ! श्रम तुम्हारा है और फल मैं ले रहा हूँ !" रजनीश के प्रणाम ९/१/१९७१ |
- See also
- Antarveena ~ 141 - The event of this letter.