Undated Letter written to Anandmayee 007: Difference between revisions

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It is undated, written on his personal letterhead stationery of the day: The top left corner reads: Rajneesh / Darshan Vibhag (Philosophy Dept) / Mahakoshal Mahavidhalaya (Mahakoshal University). The top right reads: Nivas (Home) / Yogesh Bhavan, Napiertown / Jabalpur (M.P.).  
This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It is undated, written on his personal letterhead stationery of the day: The top left corner reads: Rajneesh / Darshan Vibhag (Philosophy Dept) / Mahakoshal Mahavidhalaya (Mahakoshal University). The top right reads: Nivas (Home) / Yogesh Bhavan, Napiertown / Jabalpur (M.P.).  


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This letter has been published, in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 83 (2002 Diamond edition).
This letter has been published, in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 83 (2002 Diamond edition).


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रजनीश<br>
दर्शन विभाग<br>
महाकोशल महाविद्यालय
 
निवास:<br>
११५, योगेश भवन, नेपियर टाउन<br>
जबलपुर (म. प्र.)
 
प्रिय मां,<br>
प्रणाम। रात स्वप्न में दीखी हो – बहुत बहुत निकट कि मैं भूल ही गया जो है वह स्वप्न है और देर तक उसे सच मानकर ही खोया रहा हूँ। पांच ही बजने को थे और तुमने मेरे माथे पर अपना हाथ रख लिया है – आशीष भरा स्पर्ष और मैं पलकों को बंद किये पड़ा हूँ और तुम्हारी सांसों की मद्धिम आवाज निकट ही सुनाई पड़ रही हैं! ......... फिर जागा हूँ और कैसे कहूँ कि जागना कितना दुखद था! काश! स्वप्न शाश्वत होते और कभी न टूटते – पर स्वप्न तो टूट ही जाते हैं और कौन जाने शायद इससे ही मीठे भी लगते हैं!
 
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कार्ड अभी अभी मिला है। क्रांति का मन स्वस्थ होरहा है : ईश्वर ने साथ दिया तो निर्दय होने से बच जाउँगा। और सच कहूँ मां, तो निर्दय हो भी नहीं सकता हूँ। वह तत्व ही मुझ में नहीं है। विचारता हूँ कभी तो महावीर और बुद्ध बडे कठोर, हिंसक और पाषाण हृदय दीखते हैं। उतना पत्थर होकर मोक्ष मैं नहीं चाहता हूँ। प्रेम के साथ ही मोक्ष सधे तो ठीक; अन्यथा प्रेम ही साध लूँगा और मोक्ष छोड़ दे सकता हूँ। ........ इतनी सरलता से मोक्ष छोड़ता देख शायद आश्चर्य हो? पर मां, मैं असंदिघ्न मन जानता हूँ कि प्रेम और मोक्ष एक ही मनस्थिति के दो नाम मात्र हैं। प्रेम ही मोक्ष है। यह प्रेम वासना और मोह में दबा होता है। उसे इनके बंधन से निकाल लें तो असीम आनंद, अनंत सौंदर्य और शाश्वत प्रिय – सब एक साथ उपलब्ध होजाते हैं।
 
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Revision as of 09:40, 7 April 2020

This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It is undated, written on his personal letterhead stationery of the day: The top left corner reads: Rajneesh / Darshan Vibhag (Philosophy Dept) / Mahakoshal Mahavidhalaya (Mahakoshal University). The top right reads: Nivas (Home) / Yogesh Bhavan, Napiertown / Jabalpur (M.P.).

This letter has Osho's usual salutation to her, "प्रिय मां", Priya Maan, Dear Mom, and its only handwritten marks of the various types found on most earlier letters are a small group of pale blue marks in the text near the top. See discussion for details concerning the salutation, marks and a possible range of dates.

This letter has been published, in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 83 (2002 Diamond edition).

रजनीश
दर्शन विभाग
महाकोशल महाविद्यालय

निवास:
११५, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर (म. प्र.)

प्रिय मां,
प्रणाम। रात स्वप्न में दीखी हो – बहुत बहुत निकट कि मैं भूल ही गया जो है वह स्वप्न है और देर तक उसे सच मानकर ही खोया रहा हूँ। पांच ही बजने को थे और तुमने मेरे माथे पर अपना हाथ रख लिया है – आशीष भरा स्पर्ष और मैं पलकों को बंद किये पड़ा हूँ और तुम्हारी सांसों की मद्धिम आवाज निकट ही सुनाई पड़ रही हैं! ......... फिर जागा हूँ और कैसे कहूँ कि जागना कितना दुखद था! काश! स्वप्न शाश्वत होते और कभी न टूटते – पर स्वप्न तो टूट ही जाते हैं और कौन जाने शायद इससे ही मीठे भी लगते हैं!

xxx

कार्ड अभी अभी मिला है। क्रांति का मन स्वस्थ होरहा है : ईश्वर ने साथ दिया तो निर्दय होने से बच जाउँगा। और सच कहूँ मां, तो निर्दय हो भी नहीं सकता हूँ। वह तत्व ही मुझ में नहीं है। विचारता हूँ कभी तो महावीर और बुद्ध बडे कठोर, हिंसक और पाषाण हृदय दीखते हैं। उतना पत्थर होकर मोक्ष मैं नहीं चाहता हूँ। प्रेम के साथ ही मोक्ष सधे तो ठीक; अन्यथा प्रेम ही साध लूँगा और मोक्ष छोड़ दे सकता हूँ। ........ इतनी सरलता से मोक्ष छोड़ता देख शायद आश्चर्य हो? पर मां, मैं असंदिघ्न मन जानता हूँ कि प्रेम और मोक्ष एक ही मनस्थिति के दो नाम मात्र हैं। प्रेम ही मोक्ष है। यह प्रेम वासना और मोह में दबा होता है। उसे इनके बंधन से निकाल लें तो असीम आनंद, अनंत सौंदर्य और शाश्वत प्रिय – सब एक साथ उपलब्ध होजाते हैं।

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See also
(?) - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.