Letter written on 8 Mar 1971 (Ageh): Difference between revisions
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Letter written to [[Sw Ageh Bharti]] on 8 Mar 1971. It has been published in ''[[Pad Ghunghru Bandh (पद घुंघरू बांध)]]'' as letter 146. | |||
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acharya rajneesh | |||
A-1 WOODLAND, PEDDAR ROAD BOMBAY-26. PHONE: 382184 | |||
प्रिय अगेह भारती,<br> | |||
प्रेम। क्या समर्पण भी सोच-समझकर करोगे? | |||
सोच-समझ की व्यर्थता के बोध से ही तो समर्पण फलित होता है! | |||
और क्या यह भी पूछोगे कि समर्पण की विधि क्या है? | |||
जहांतक विधियों की गति है, वहां तक तो समर्पण (Surrender)नहीं ही है ! | |||
और समर्पण भी क्या तुम करोगे? | |||
जहां तक तुम हो वहां तक समर्पण कहां ? | |||
समर्पण क्रिया भी तो नहीं है -- भाषा को छोड़कर। | |||
समर्पण तो समस्त क्रियाओं की कब्र पर खिला फूल है। | |||
समझो नहीं। | |||
करो भी नहीं। | |||
<u>देखो स्थिति -- और होजाने दो (Let Go)</u>! | |||
<u>समर्पण को रोको भर मत -- बस होजाने दो।</u> | |||
जैसे सोते हो रात -- बस ऐसे ही। | |||
क्या है विधि सोने की? | |||
क्या है क्रिया? | |||
क्या करते हो तुम? | |||
<u>थकते हो और पड़ जाते हो -- अचेतन के हाथों में।</u> | |||
ऐसे ही थक गये हो अस्मिता से तो अब छोड़ दो स्वयं को अज्ञात के हाथों में। | |||
छोड़ दो बस -- चुपचाप। | |||
ऐसे कि आवाज भी न हो! | |||
रजनीश के प्रणाम | |||
८/३/१९७१ | |||
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:[[Pad Ghunghru Bandh ~ 146]] - The event of this letter. | |||
[[Category:Manuscripts|Letter 1971-03-08]] [[Category:Manuscript Letters (hi:पांडुलिपि पत्र)|Letter 1971-03-08]] | |||
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Latest revision as of 04:43, 25 May 2022
Letter written to Sw Ageh Bharti on 8 Mar 1971. It has been published in Pad Ghunghru Bandh (पद घुंघरू बांध) as letter 146.
acharya rajneesh A-1 WOODLAND, PEDDAR ROAD BOMBAY-26. PHONE: 382184 प्रिय अगेह भारती, सोच-समझ की व्यर्थता के बोध से ही तो समर्पण फलित होता है! और क्या यह भी पूछोगे कि समर्पण की विधि क्या है? जहांतक विधियों की गति है, वहां तक तो समर्पण (Surrender)नहीं ही है ! और समर्पण भी क्या तुम करोगे? जहां तक तुम हो वहां तक समर्पण कहां ? समर्पण क्रिया भी तो नहीं है -- भाषा को छोड़कर। समर्पण तो समस्त क्रियाओं की कब्र पर खिला फूल है। समझो नहीं। करो भी नहीं। देखो स्थिति -- और होजाने दो (Let Go)! समर्पण को रोको भर मत -- बस होजाने दो। जैसे सोते हो रात -- बस ऐसे ही। क्या है विधि सोने की? क्या है क्रिया? क्या करते हो तुम? थकते हो और पड़ जाते हो -- अचेतन के हाथों में। ऐसे ही थक गये हो अस्मिता से तो अब छोड़ दो स्वयं को अज्ञात के हाथों में। छोड़ दो बस -- चुपचाप। ऐसे कि आवाज भी न हो! रजनीश के प्रणाम ८/३/१९७१ |
- See also
- Pad Ghunghru Bandh ~ 146 - The event of this letter.