Man Hi Puja Man Hi Dhoop (मन ही पूजा मन ही धूप): Difference between revisions
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description = एक दुर्घटना हुई है। और वह दुर्घटना है: मनुष्य की चेतना बहिर्मुखी हो गई है। सदियों से धीरे-धीरे यह हुआ, शनैः-शनैः, क्रमशः-क्रमशः। मनुष्य की आंखें बस बाहर थिर हो गई हैं, भीतर मुड़ना भूल गई हैं। तो कभी अगर धन से ऊब भी जाता है--और ऊबेगा ही कभी; कभी पद से भी आदमी ऊब जाता है--ऊबना ही पड़ेगा, सब थोथा है। कब तक भरमाओगे अपने को? भ्रम हैं तो टूटेंगे। छाया को कब तक सत्य मानोगे? माया का मोह कब तक धोखे देगा? सपनों में कब तक अटके रहोगे? एक न एक दिन पता चलता है सब व्यर्थ है। लेकिन तब भी एक मुसीबत खड़ी हो जाती है। वे जो आंखें बाहर ठहर गई हैं, वे आंखें अब भी बाहर ही खोजती हैं। धन नहीं खोजतीं, भगवान खोजती हैं--मगर बाहर ही। पद नहीं खोजतीं, मोक्ष खोजती हैं--लेकिन बाहर ही। विषय बदल जाता है, लेकिन तुम्हारी जीवन-दिशा नहीं बदलती। और परमात्मा भीतर है, यह अंतर्यात्रा है। जिसकी भक्ति उसे बाहर के भगवान से जोड़े हुए है, उसकी भक्ति भी धोखा है। मन ही पूजा मन ही धूप। चलना है भीतर! मन है मंदिर! उसी मन के अंतरगृह में छिपा हुआ बैठा है मालिक। | |||
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=== | [[category:Indian Mystics (hi:भारतीय मनीषियों)]] | ||
[[category:First Edition Series (hi:प्रथम संस्करण सीरीज)]] | |||
[[category:Not Translated to English (hi:अंग्रेजी में अनूदित नहीं)]] | |||
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Revision as of 06:37, 17 April 2014
- एक दुर्घटना हुई है। और वह दुर्घटना है: मनुष्य की चेतना बहिर्मुखी हो गई है। सदियों से धीरे-धीरे यह हुआ, शनैः-शनैः, क्रमशः-क्रमशः। मनुष्य की आंखें बस बाहर थिर हो गई हैं, भीतर मुड़ना भूल गई हैं। तो कभी अगर धन से ऊब भी जाता है--और ऊबेगा ही कभी; कभी पद से भी आदमी ऊब जाता है--ऊबना ही पड़ेगा, सब थोथा है। कब तक भरमाओगे अपने को? भ्रम हैं तो टूटेंगे। छाया को कब तक सत्य मानोगे? माया का मोह कब तक धोखे देगा? सपनों में कब तक अटके रहोगे? एक न एक दिन पता चलता है सब व्यर्थ है। लेकिन तब भी एक मुसीबत खड़ी हो जाती है। वे जो आंखें बाहर ठहर गई हैं, वे आंखें अब भी बाहर ही खोजती हैं। धन नहीं खोजतीं, भगवान खोजती हैं--मगर बाहर ही। पद नहीं खोजतीं, मोक्ष खोजती हैं--लेकिन बाहर ही। विषय बदल जाता है, लेकिन तुम्हारी जीवन-दिशा नहीं बदलती। और परमात्मा भीतर है, यह अंतर्यात्रा है। जिसकी भक्ति उसे बाहर के भगवान से जोड़े हुए है, उसकी भक्ति भी धोखा है। मन ही पूजा मन ही धूप। चलना है भीतर! मन है मंदिर! उसी मन के अंतरगृह में छिपा हुआ बैठा है मालिक।
- ~ ओशो
- notes
- Osho's talks were given in Pune, on the 15th c Indian mystic Raidas. See discussion for more on this and a TOC.
- time period of Osho's original talks/writings
- Oct 1, 1979 to Oct 10, 1979 : timeline
- number of discourses/chapters
- 10
editions
Man Hi Puja Man Hi Dhoop (मन ही पूजा मन ही धूप)
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