प्यारी मौनू,
प्रेम| एक सूफी फकीर गुजरता था किसी नगर से। तपते सूर्य और रेगस्तानी यात्राओं ने उसके चेहरे को काछा कर दिया था।
जिसकी उसे खोज थी, वह तो मिलता नहीं था यद्यपि वह स्वयं रोज-रोज जरूर खोता जाता था!
उसकी आंखे सदा ही अज्ञात को खोजती रहतीं और उसके हाथ सदा ही अज्ञात को टटोलते रहते।
उस फकीर को किसी व्यापारी ने देखा और उसके रंग-ढंग को देख सोचा कि जरूर ही वह किसी का खो गया गुलाम है। आदमी स्वयं से ज्यादा और स्वयं के पार तो कभी सोच ही नहीं पाता है न?
वह व्यापारी स्वयं ही हजार तरह की गुलामियों से घिरा था - यद्यपि मानता था स्वयं को कि अपना मालिक है।
अपना ही क्यों - औरों का भी? गुलाम सदा ही ऐसा मानते हैं।
उस व्यापारी ने फकीर से पूछा - 'क्या तुम किसी के गुलाम नहीं हो ? (Are you not a slave?)'
फकीर तो गुलाम ही था प्रभु का।
उसने आनंद से कहा : "जरूर हूं ! (That I am !)"
व्यापारी ने पूछा : "और तुम्हारा नाम?"
फकीर स्वयं को ही भूलता जा रहा था - सो उसे नाम याद न आया|
व्यापारी ने कहा : "कोई हर्ज नहीं - स्मृति तुम्हारी कमजोर मालूम पड़ती है - लेकिन तुम्हारे विनम्र स्वभाव के कारण मैं तुम्हें 'खैर' (शुभ : Good) कहकर पुकारूंगा !'
जिन्हें स्वयं का कोई भी स्मरण नहीं है, वे स्वयं के नाम को जानने को ही स्मृति (Remembering) कहते हैं ! हालांकि, जिन्हें स्वयं का स्मरण करना है, उन्हें स्वयं के संबंधमें सब कुछ - सब नाम-धाम-पता-ठिकाना भूल जाना पड़ता है !
अंतत: उस व्यापारी ने कहा : "उठे ! चलो ! मेंरे साथ - जब तक कि मैं तुम्हारे मालिक को न खोज लूं तब तक तुम मेंरे साथ रह सकते हो और मेरा काम कर सकते हो।"
फकीर हंसा और बोला : "मैं आपकी कृपा से अत्यंत अनुगृहीत हूं और कृपा करके जरूर ही मेरे मालिक को खोजने में मेरी सहायता करें क्योंकि मैं कितने लम्बे समय से उसे खोज रहा हूं और अब तक नहीं खोज पाया हूं !" (I would like that for I have been seeking MY MASTER for such a long time !)
आदमी आदमी की भाषा अलग है। और धार्मिक व्यक्ति और अधार्मिक व्यक्ति की भाषाओं में तो कोई भी तालमेल नहीं होता ! पर शब्द तो वे हीं हैं और इसलिये उलझनों का कोई अंत नहीं है।