Letter written on 12 Nov 1970 (Maitreya): Difference between revisions

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Letter written to [[Sw Anand Maitreya]], whom Osho addressed as Mathura Babu, on 12 Nov 1970. It has been published in ''[[Dhai Aakhar Prem Ka (ढ़ाई आखर प्रेम का)]]'', as letter #41.
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acharya rajneesh
27 C C I CHAMBERS CHURCHGATE BOMBAY-20 PHONE 293782
प्रिय मथुरा बाबू,<br>
प्रेम। मन से लड़े न।
क्योंकि, लड़ने से मन ही बढ़ता है।
वह विधि भी उसके विस्तार की ही है।
और फिर मन से लड़ने से जीत तो कभी होती ही नहीं है।
वह भी पराजय का ही सुगम सूत्र है।
जो स्वयं से लड़ा वह हारा।
क्योंकि, वैसे जीत असंभव है।
स्वयं से लड़ना स्वयं को स्व-विरोधी खंडों में विभाजित करना है।
और दोनों ओर से स्वयं को ही लड़ना पड़ता है।
ऐसे जीवन-ऊर्जा रुग्ण ही होती है।
और सीज़ोफ्रेनिक भी।
नहीं -- लड़े नहीं, वरन् स्वयं की स्वीकारें।
स्वयं के साथ रहने को राजी हों।
जो है -- है।
उससे भागें नहीं।
उसे बदलने कां प्रयास भी न करें।
उसमें जियें।
वही होकर जियें।
और तब जीवन-ऊर्जा अपनी अखंडता में प्रगट होती है।
स्वस्थ, समाहित, और सशक्त।
और फिर रूपांतरण घटित होता है।
स्वस्थ, अखंड और सशक्त जीवन -ऊर्जा की छाया की भांति।
वह प्रयास नहीं, परिणाम है।
वह कर्म नहीं, घटना है।
वह प्रभु-प्रसाद है।
रजनीश के प्रणाम
१२/११/१९७०
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;See also
:[[Dhai Aakhar Prem Ka ~ 041]] - The event of this letter.


Letter written to [[Sw Anand Maitreya]], whom Osho addressed as Mathura Babu, on 12 Nov 1970. It has been published in ''[[Dhai Aakhar Prem Ka (ढ़ाई आखर प्रेम का)]]'', as letter #41. We are awaiting a transcription and translation.
[[Category:Manuscripts|Letter 1970-11-12]] [[Category:Manuscript Letters (hi:पांडुलिपि पत्र)|Letter 1970-11-12]]

Latest revision as of 14:55, 24 May 2022

Letter written to Sw Anand Maitreya, whom Osho addressed as Mathura Babu, on 12 Nov 1970. It has been published in Dhai Aakhar Prem Ka (ढ़ाई आखर प्रेम का), as letter #41.

acharya rajneesh

27 C C I CHAMBERS CHURCHGATE BOMBAY-20 PHONE 293782

प्रिय मथुरा बाबू,
प्रेम। मन से लड़े न।

क्योंकि, लड़ने से मन ही बढ़ता है।

वह विधि भी उसके विस्तार की ही है।

और फिर मन से लड़ने से जीत तो कभी होती ही नहीं है।

वह भी पराजय का ही सुगम सूत्र है।

जो स्वयं से लड़ा वह हारा।

क्योंकि, वैसे जीत असंभव है।

स्वयं से लड़ना स्वयं को स्व-विरोधी खंडों में विभाजित करना है।

और दोनों ओर से स्वयं को ही लड़ना पड़ता है।

ऐसे जीवन-ऊर्जा रुग्ण ही होती है।

और सीज़ोफ्रेनिक भी।

नहीं -- लड़े नहीं, वरन् स्वयं की स्वीकारें।

स्वयं के साथ रहने को राजी हों।

जो है -- है।

उससे भागें नहीं।

उसे बदलने कां प्रयास भी न करें।

उसमें जियें।

वही होकर जियें।

और तब जीवन-ऊर्जा अपनी अखंडता में प्रगट होती है।

स्वस्थ, समाहित, और सशक्त।

और फिर रूपांतरण घटित होता है।

स्वस्थ, अखंड और सशक्त जीवन -ऊर्जा की छाया की भांति।

वह प्रयास नहीं, परिणाम है।

वह कर्म नहीं, घटना है।

वह प्रभु-प्रसाद है।

रजनीश के प्रणाम

१२/११/१९७०


See also
Dhai Aakhar Prem Ka ~ 041 - The event of this letter.