There is also another letter to Yoga Kranti on the same date.
acharya rajneesh
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प्यारी मौनू,
प्रेम। ज्ञानियों से बड़े अज्ञानी नहीं है; क्योकिं जीवन अज्ञेय है। ज्ञान असंभव है; क्योकिं जीवन रहस्य है। और फिर भी मैं कहता हूं कि जो सत्य की इस अज्ञेयता को समझ लेता है वह अज्ञान से मुक्त हो जाता है!
या ज्ञान को उपलब्धहो जाता है!
और मैं ये दोनों ही विरोधी भासनेवाली बातें एक ही साथ कहता हूं; क्योकिं जीवन रहस्य है!
एक झेन फकीर से किसी ने पूछा : "मैं सत्य को खोज रहा हूं। मन की किस अवस्था के लिये मैं स्वयं को तैयार करूंकि सत्य को पा सकूं?"
फकीर ने कहा : "मन है कहां? इसलिये तुम उसे किसी भी अवस्था में कैसे रख सकते हो? और रहा सत्य - सो सत्य कहीं भी नहीं है इसलिये उसे खोजोगे कैसे?"
स्वभावत: उस व्यक्ति ने कहा : "जब मन ही नहीं है तो तुम्हारे ये शिष्य किसका अभ्यास कर रहे हैं? और जब सत्य ही नहीं है तो इतने साधकों को क्या खोजने के लिये तुमने अपने आसपास इकट्ठा कर रखा है?"
फकीर ने सुना और कहा : "लेकिन यहां तो इन्च भर की भी जगह कहां है जो मैं साधकों को इकट्ठा कर सकूं? और मैं तो कभी बोला ही नहीं सो शिष्यों को शिक्षा कैसे दे सकता हूं?
चकित और क्रुद्ध हो उस व्यक्ति ने कहा : "महाशय! झूठ की भी हद होती है?"
फकीर हंसा और बोला : "लेकिन जब मैं आज तक बोला ही नहीं तो झूठ कैसे बोल सकता हूं?"
फकीर की हंसी ने उस व्यक्ति को कुछ होश दिया तो उसने उदास हो कहा : "मैं आपका अनुसरण नहीं कर पा रहा हूं - मैं आपको समझ नहीं पा रहा हूं।"
फकीर खिलखिला कर देर तक हंसता रहा और फिर बोला : "मैं स्वयं ही स्वयं को कहां समझ पाता हूं?"