Letter written on 26 May 1963 (Manubhai): Difference between revisions

From The Sannyas Wiki
Jump to navigation Jump to search
No edit summary
No edit summary
Line 1: Line 1:
[[image:Letter-26-May-1963.jpg|right|300px]]
Letterhead reads (in Devanagari):  
Letterhead reads (in Devanagari):  
:Acharya Rajneesh [larger and messier and to the right of and above the rest below]
:Acharya Rajneesh [larger and messier and to the right of and above the rest below]
Line 10: Line 8:
It is dated 26th May 1963 and signed with "Rajneesh ke pranaam". It is not known to have been previously published. The recipient is [[Manubhai Desai]]. Osho has also written an [[Letter written on 12 Jan 1963 am|earlier letter to him]] on the same stationery and [[Letter written on 23 May 1964|a typed letter a year later]].  
It is dated 26th May 1963 and signed with "Rajneesh ke pranaam". It is not known to have been previously published. The recipient is [[Manubhai Desai]]. Osho has also written an [[Letter written on 12 Jan 1963 am|earlier letter to him]] on the same stationery and [[Letter written on 23 May 1964|a typed letter a year later]].  


We are awaiting transcription and translation.
{| class = "wikitable" style="margin-left: 50px; margin-right: 100px;"
|-
|[[image:Letter-26-May-1963.jpg|right|300px]]
 
आचार्य रजनीश
 
दर्शन विभाग<br>
महाकोशल कला महाविधालय<br>
११५, नेपियर टाउन<br>
जबलपुर (म. प्र.)
 
श्री मनुभाई देसाई को,
 
 
प्रिय आत्मन्,<br>
स्नेह। आपका पत्र मिले देर होगई पर इस बिच निरन्तर बाहर और व्यस्त होने के कारण यथासमय प्रत्युत्तर नहीं देसका हूं। समाधि योग से मेरा अर्थ कोई दाशीनिक विचारधारा नहीं है। विचार और धारणायें जहां तक हैं वहां तक न समाधि हैं इ साथ है। इसलिए , मैं कोई आध्यात्मिक नाम से प्रचलित विचारधारा को स्वीकार करने को नहीं कहता हूं। मेरी दष्टि में सत्य के संबंध में सब कहा हुआ व्यर्थ है। विचार धारायें मात्र सत्य - साधक को बाधायें हैं। <u>सत्य के सम्बंध में नहीं ; सत्य को जानना है।</u> यह ज्ञान विचार-शुन्य समाधि में प्रगट होता है। ज्ञान प्रतिक्षण उपस्थित है। वह खोया नहीं जासकता है। वह प्रत्येक का स्वरुप है। विचार की प्रक्रिया इसे ढांक देती है। मन पर्दा बन जाता है। इस परदे को उठाना है। मन की विजातीय धूल के हटते ही जो सनातन है वह अभिव्यक्त होजाता है।
 
यह भी आपने पूछा है की क्या पूर्वजन्म के संस्कार आध्यात्मिक जीवन को पाने में सहायक या बाधक होते हैं ? पूर्वजन्मके संस्कार या किसी भी भांति के संस्कार केवल क्रियाओं को प्रभावित कर सकते हैं। <u>आध्यात्मिक
जीवन में प्रवेश क्रिया नहीं, अक्रिया है।</u> इसलिए, आध्यात्मिक जीवन में कोई संस्कार बाधा नहीं है। न कोई संस्कार साधक है। आध्यात्मिक जीवन कार्य- कारण की श्रंखला के भीतर नहीं है। वह श्रंखला ही बंधन है। इस श्रंखला से छलांग लगानी है। यह छलांग श्रंखला का अंग नहीं हो सकती है। इस श्रंखला के बहार होना ही मुक्ति है।
 
सबको मेरे विनम्र प्रणाम कहें। ग्रीष्म - अवकाश में तो मेरा नंदुरबार आना नहीं हो सकेगा। सब कार्यक्रम पूर्व से ही तय हो चुके हैं। उस और कभी वर्षा में आने है विचार करता हूं।
 
रजनीश के प्रणाम
 
२६-५-६३
 
|}





Revision as of 12:48, 16 February 2020

Letterhead reads (in Devanagari):

Acharya Rajneesh [larger and messier and to the right of and above the rest below]
Darshan Vibhag [Department of Philosophy]
Mahakoshal Kala Mahavidyalaya [Mahakoshal Arts University]
115, Napier Town
Jabalpur (M.P.)

It is dated 26th May 1963 and signed with "Rajneesh ke pranaam". It is not known to have been previously published. The recipient is Manubhai Desai. Osho has also written an earlier letter to him on the same stationery and a typed letter a year later.

आचार्य रजनीश

दर्शन विभाग
महाकोशल कला महाविधालय
११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म. प्र.)

श्री मनुभाई देसाई को,


प्रिय आत्मन्,
स्नेह। आपका पत्र मिले देर होगई पर इस बिच निरन्तर बाहर और व्यस्त होने के कारण यथासमय प्रत्युत्तर नहीं देसका हूं। समाधि योग से मेरा अर्थ कोई दाशीनिक विचारधारा नहीं है। विचार और धारणायें जहां तक हैं वहां तक न समाधि हैं इ साथ है। इसलिए , मैं कोई आध्यात्मिक नाम से प्रचलित विचारधारा को स्वीकार करने को नहीं कहता हूं। मेरी दष्टि में सत्य के संबंध में सब कहा हुआ व्यर्थ है। विचार धारायें मात्र सत्य - साधक को बाधायें हैं। सत्य के सम्बंध में नहीं ; सत्य को जानना है। यह ज्ञान विचार-शुन्य समाधि में प्रगट होता है। ज्ञान प्रतिक्षण उपस्थित है। वह खोया नहीं जासकता है। वह प्रत्येक का स्वरुप है। विचार की प्रक्रिया इसे ढांक देती है। मन पर्दा बन जाता है। इस परदे को उठाना है। मन की विजातीय धूल के हटते ही जो सनातन है वह अभिव्यक्त होजाता है।

यह भी आपने पूछा है की क्या पूर्वजन्म के संस्कार आध्यात्मिक जीवन को पाने में सहायक या बाधक होते हैं ? पूर्वजन्मके संस्कार या किसी भी भांति के संस्कार केवल क्रियाओं को प्रभावित कर सकते हैं। आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश क्रिया नहीं, अक्रिया है। इसलिए, आध्यात्मिक जीवन में कोई संस्कार बाधा नहीं है। न कोई संस्कार साधक है। आध्यात्मिक जीवन कार्य- कारण की श्रंखला के भीतर नहीं है। वह श्रंखला ही बंधन है। इस श्रंखला से छलांग लगानी है। यह छलांग श्रंखला का अंग नहीं हो सकती है। इस श्रंखला के बहार होना ही मुक्ति है।

सबको मेरे विनम्र प्रणाम कहें। ग्रीष्म - अवकाश में तो मेरा नंदुरबार आना नहीं हो सकेगा। सब कार्यक्रम पूर्व से ही तय हो चुके हैं। उस और कभी वर्षा में आने है विचार करता हूं।

रजनीश के प्रणाम

२६-५-६३


See also
Letters to Manubhai Desai ~ 02 - The event of this letter.