Letter written on 2 Mar 1966 (2)

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Letter written to Pratap J. Toliya on 2 Mar 1966. It is unknown if it has been published or not.

Sw Satya Anuragi kindly shared this and other 17 letters to Pratap.


मेरे प्रिय,
मैं प्रवास से लौटा हूं तो तुम्हारा पत्र मिला है। यह जानकर आनंदित हूँ कि जीवन की दिशा स्पष्ट दिखाई दे रही है। मार्ग के दर्शन में ही आधा चलना तो हो ही जाता है और फिर चलना प्रारंभ करना ही पहुंच जाता है; क्योंकि आरंभ में ही अंत भी छिपा होता है। बीज में जैसे वृक्ष होता है वैसे ही प्रथम चरण में अंतिम मंजिल भी होती है। जिसे तुमने दूर कहा है, वह वस्तुतः निकट ही है। इसलिए जो जानते हैं, वे दूर का नहीं, निकट का ध्यान रखते हैं। निकट को सम्हाल लेना, सब संभाल लेना है।

मनुष्य साधारणतः मूर्च्छा में जीता है। और अनेक अनेक रूपों में उसका चित्त मूर्च्छा की खोज करता है। जिस भांति भी स्वयं को भुला जा सके, उस भांति ही वह स्वयं को भूलना चाहता है। लेकिन विस्मरण से 'स्व' मिटता नहीं है, बस उसके मिटने का भ्रम ही निर्मित होता है। 'स्व' मिटता है: पूर्ण आत्म-स्मरण से। वह उपलब्धि मूर्च्छा की नहीं वरन् संपूर्ण अमूर्च्छा की है। और जहां 'स्व' नहीं है, वहीं सत्य है, वहीं सज्ञा है, वहीं संगीत है। क्या 'स्व' से अधिक असत्य कुछ और है? और क्या 'स्व' से अधिक विसंगतिपूर्ण स्वर कोई और हो सकता है? लेकिन इस कारण उसे भुलाना नहीं है क्योंकि जिससे हम भुलाते हैं, उसे हम स्वीकार करते हैं, और बचा लेते हैं!

सत्य को, सौंदर्य को, संगीत को खोजो-- लेकिन एक स्मरण सदा रहे कि ये आत्मविस्मरण के उपाय न हों। जीवन से पलायन खोजना, जीवन से वंचित हो जाना है। जीवन तो उसका है जो उसेमें उसमें जागते हैं और उसे जीतते हैं।

वहां सब को मेरा प्रेम। यदि गुरुदयाल मल्लिक को पत्र लिखो तो मेरे प्रणाम लिखना।

२/३/१९६६
जबलपुर

रजनीश के प्रणाम


See also
Letters to Pratap ~ 02 - The event of this letter.