This letter was typed on plain paper while traveling from Gondia in the northeastern tip of Maharashtra, on 23rd May 1964. There is a typed "Rajneesh" on top in place of letterhead. It is signed with "Rajneesh ke pranaam" and mentions an upcoming event in Nandurbar (also upstate MH) on 11 and 12 July. It is not known to have been previously published.
चिदात्मन्,
आपका पत्र मिले देर होगई है. मैं जुलाई की ११,१२ तारीखों में नंदुरबार आने का विचार कर रहा हूं. दो ही दिन वहां रुक सकूंगा. अधिक रुकना होसके, यह मैं भी चाहता था, पर समय के अभाव के कारण संभव नहीं है.
आपने लिखा है कि धर्म के पुरस्कत्ताओं की शिखावनों में बहुत भेद है,और इसलिये साधक अत्यंत किंकर्तव्यविमूढ होजाता है. पर स्मरण रहे कि मेरी कोई सिखावन नहीं है, और सत्य को सिखावनों और सिंद्धांतों के द्वारा पाने का कोई उपाय भी नहीं है. सत्य सिद्धांत से नहीं, स्वानुभूति से उपलब्ध होता है. विचार से नहीं,निर्विचार से उसका साक्षात होता है विचार भेद है,और भेद को उपजाता है. विचार है तबतक भेद अपरिहार्य है. सत्य के संबंध में जो सिद्धांत हैं,वे सत्य नहीं,मात्र विचार ही तो हैं,और इसलिये उनमें भेद स्वाभाविक ही है. उन विचारों से कोई अभेद तक नहीं पहुंच सकता है. और, इसलिये आजतक समस्त तथाकथित धर्म मनुष्य को एक नहीं, केवल खंडित कराने में ही समर्थ हुये हैं. और जो मनुष्य को मनुष्य से नहीं जोड़ पाते हैं, वे मनुष्य को प्रभु से क्या जोड सकते हैं ?
सत्य के संबंधमें परिकल्पनायें और धारणायें व्यर्थ हैं, क्योंकि उसकी कोई धारणा संभव ही नहीं है,और चित्त जब समस्त धारणाओं से मुक्त होता है, तब उस धारणाशून्य, निर्विचार और निर्विकल्प चित्त में उसका अवतरण होता है. वह आसके इसके लिये अवकाश (space)चाहिये. विचार, मत और सिद्धांत उस अवकाश को दबाये हुये हैं. उन सभी को कचरे की भांति अलग कर देना होता है. और जब चित्त में कुछ भी शेष नहीं बचता है, तब वही शेष बच रहता है,जिसकी कि खोज है.
मैं आनन्द में हूं. वहां मेरे सब प्रियजनों को मेरा प्रेम कहे.
रजनीश के प्रणाम
यात्रा से,
गोंदिया,
२३ मई १९६४
Partial translation
"It’s late having received your letter. I am planning to come to Nandurbar on the dates 11, 12 of July. I can stay there only for two days."