Letter written on 24 Feb 1971 (KSaraswati): Difference between revisions
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Osho wrote many letters to [[Sw Krishna Saraswati]] both in Hindi and in English, some of which were published in various letter collections. This one, in Hindi, is dated 24th February 1971 and has has been published in ''[[Pad Ghunghru Bandh (पद घुंघरू बांध)]]'' as letter 101. The whole letter is written in black ink except Osho's bright red signature. It is a long letter, running over to the back side of the page. | |||
Osho wrote many letters to [[Sw Krishna Saraswati]] both in Hindi and in English, some of which were published in various letter collections. This one, in Hindi, is dated 24th February 1971 and has | |||
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Acharya Rajneesh | |||
kamala nehru nagar : jabalpur (m.p.). phone: 2957 | |||
प्रिय कृष्ण सरस्वती,<br> | |||
प्रेम। शब्दों का भी गहरा खेल है। | |||
और जो लोग उस खेल को गहन गंभीरता से खेलते हैं, वे ही दार्शनिक (Philosophars) हैं ! | |||
निश्चय ही उस खेल से मन-बहलाव तो होता है -- लेकिन, सत्य की यात्रा नहीं। | |||
इसलिए ही तो दर्शन (Philosophy) न कहीं पहुँचता है -- न कहीं पहुँचाता है। | |||
<u>और दर्शन शाश्त्र से मुक्त हुए बिना धर्म में प्रवेश असंभव है।</u> | |||
शब्दों के खेल में अन्य खेलों से और भी एक रहस्यमय विशेषता है। | |||
वह यह कि उसमें कभी कोई हारता नहीं है ! | |||
न ही कभी कोई जीतता ही है ! | |||
लेकिन, प्रत्येक स्वयं को जीता हुआ मानता है ! | |||
जॉन विसडम की एक कहानी तुमसे कहता हूँः | |||
दो यात्री एक जंगल में से निकले। | |||
घने जंगल के मध्य में थोड़ी सी खुली जगह थी जहां कि भांति भांति के रंग बिरंगे फूलों से पौधे लदे थे। | |||
लेकिन उनके बीच बीच में घास-पात भी खूब ऊगा था। | |||
एक यात्री आस्तिक था। | |||
उसने कहाः " निश्चय ही इन फूलों की देखभाल कोई कुशल माली करता है ! " | |||
दूसरा यात्री नास्तिक था। | |||
उसने कहाः " कभी नहीं -- क्योंकि बीच बिच में उगी व्यर्थ की घास-पात इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि इन फूलों की देखभाल करने वाला कोई भी नहीं है !" | |||
फिर विवाद बढ़ गया। | |||
दोनों ओर से तर्क दिए गये। | |||
पर कोई परिणाम न आया। | |||
तब उन दोनों ने वहीँ तम्बू गाड़ लिये -- यह जानने को कि कोई माली है या नहीं ? | |||
चौबीस घंटे वे पहरा देते -- लेकिन कोई माली दिखाई नहीं पड़ा। | |||
तब आस्तिक ने कहाः " निश्चय ही माली अदृश्य (Invisible) है। " | |||
तब उन ने फूलों के चारों ओर तार बांधे और तारों में बिजली दौड़ाई और पहरे के लिए शिकारी कुत्ते रखे। | |||
लेकिन, नहीं -- माली का कोई पता नहीं। | |||
बिजली के तारों को छूकर कभी कोई चीख नहीं आई। | |||
न ही कुत्ते ही किसीकी अदृश्य उपस्थिति से भोंके। | |||
तब आस्तिक ने कहाः " माली न केवल अदृश्य है वरन अस्पर्शनीय भी है। माली इन्द्रियातीत है। न केवल इन्द्रियातीत वरन् निर्गुण भी है। और न केवल निर्गुण वरन् निराकार भी है। " | |||
नास्तिक ने सुना और हंसकर कहाः " यही तो मैं पहले से ही कह रहा हूँ क्योंकि तुम्हारे अदृश्य, अस्पर्शनीय इन्द्रियातीत और निर्गुण-निराकार माली में और मेरे न माली में फर्क ही क्या है?" | |||
रजनीश के प्रणाम | |||
२४/२/१९७१ | |||
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:[[Pad Ghunghru Bandh ~ 101]] - The event of this letter. | |||
:[https://www.oshonews.com/2021/05/14/the-no-gardener/ translation on OshoNews] | |||
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Latest revision as of 03:45, 25 May 2022
Osho wrote many letters to Sw Krishna Saraswati both in Hindi and in English, some of which were published in various letter collections. This one, in Hindi, is dated 24th February 1971 and has has been published in Pad Ghunghru Bandh (पद घुंघरू बांध) as letter 101. The whole letter is written in black ink except Osho's bright red signature. It is a long letter, running over to the back side of the page.
The letterhead reads:
- acharya rajneesh, followed by
- kamala nehru nagar : jabalpur (m.p.). phone : 2957, all in lower-case
The logo in the upper right corner is a Jeevan Jagriti Kendra logo, in two colours. The letterhead is the classic one from the late-Jabalpur period, somewhat of an anachronism here.
Acharya Rajneesh kamala nehru nagar : jabalpur (m.p.). phone: 2957 प्रिय कृष्ण सरस्वती, और जो लोग उस खेल को गहन गंभीरता से खेलते हैं, वे ही दार्शनिक (Philosophars) हैं ! निश्चय ही उस खेल से मन-बहलाव तो होता है -- लेकिन, सत्य की यात्रा नहीं। इसलिए ही तो दर्शन (Philosophy) न कहीं पहुँचता है -- न कहीं पहुँचाता है। और दर्शन शाश्त्र से मुक्त हुए बिना धर्म में प्रवेश असंभव है। शब्दों के खेल में अन्य खेलों से और भी एक रहस्यमय विशेषता है। वह यह कि उसमें कभी कोई हारता नहीं है ! न ही कभी कोई जीतता ही है ! लेकिन, प्रत्येक स्वयं को जीता हुआ मानता है ! जॉन विसडम की एक कहानी तुमसे कहता हूँः दो यात्री एक जंगल में से निकले। घने जंगल के मध्य में थोड़ी सी खुली जगह थी जहां कि भांति भांति के रंग बिरंगे फूलों से पौधे लदे थे। लेकिन उनके बीच बीच में घास-पात भी खूब ऊगा था। एक यात्री आस्तिक था। उसने कहाः " निश्चय ही इन फूलों की देखभाल कोई कुशल माली करता है ! " दूसरा यात्री नास्तिक था। उसने कहाः " कभी नहीं -- क्योंकि बीच बिच में उगी व्यर्थ की घास-पात इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि इन फूलों की देखभाल करने वाला कोई भी नहीं है !" फिर विवाद बढ़ गया। दोनों ओर से तर्क दिए गये। पर कोई परिणाम न आया। तब उन दोनों ने वहीँ तम्बू गाड़ लिये -- यह जानने को कि कोई माली है या नहीं ? चौबीस घंटे वे पहरा देते -- लेकिन कोई माली दिखाई नहीं पड़ा। तब आस्तिक ने कहाः " निश्चय ही माली अदृश्य (Invisible) है। " तब उन ने फूलों के चारों ओर तार बांधे और तारों में बिजली दौड़ाई और पहरे के लिए शिकारी कुत्ते रखे। लेकिन, नहीं -- माली का कोई पता नहीं। बिजली के तारों को छूकर कभी कोई चीख नहीं आई। न ही कुत्ते ही किसीकी अदृश्य उपस्थिति से भोंके। तब आस्तिक ने कहाः " माली न केवल अदृश्य है वरन अस्पर्शनीय भी है। माली इन्द्रियातीत है। न केवल इन्द्रियातीत वरन् निर्गुण भी है। और न केवल निर्गुण वरन् निराकार भी है। " नास्तिक ने सुना और हंसकर कहाः " यही तो मैं पहले से ही कह रहा हूँ क्योंकि तुम्हारे अदृश्य, अस्पर्शनीय इन्द्रियातीत और निर्गुण-निराकार माली में और मेरे न माली में फर्क ही क्या है?" रजनीश के प्रणाम २४/२/१९७१ |
- See also
- Pad Ghunghru Bandh ~ 101 - The event of this letter.
- translation on OshoNews