Letter written on 28 Sep 1963: Difference between revisions

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:Acharya Rajneesh (oriented vertically)
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The recipient is Rajendranath Tripathi, who worked for the Life Insurance Corp of India in Nagpur, then transferred to Bombay. It is one of four letters known to have been written to him.
The recipient is Rajendranath Tripathi, who worked for the Life Insurance Corp of India in Nagpur, then transferred to Bombay. It is one of four letters known to have been written to him.


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Other letters to RN Tripathi:
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:[[Osho Letter written on 12 May 1964]]
:[[Letter written on 12 May 1964]]
:[[Osho Letter written on 10 Jan 1965]]
:[[Letter written on 10 Jan 1964]]
:[[Osho Letter written on 3 Sep 1963]]
:[[Letter written on 3 Sep 1963]]
 
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आचार्य रजनीश
 
११५, नेपियर टाउन,<br>
जबलपुर (म. प्र:)
 
 
श्री राजेन्द्रनाथ त्रिपाठी को,
 
प्रिय आत्मन्,<br>
स्नेह। आपका पत्र मिले देर होगई है। मैं इस बीच निरंतर बाहर था, इसलिए। साधना चल रही है यह जानकर प्रसन्न हूँ। चित्तवृतियों के संबंध में पूछा है। उनके साथ कुछ करना नहीं है केवल उनके प्रति जागना है। शुभ के प्रति भी, अशुभ के प्रति भी। शुभ-अशुभ दोनों ही चित्तके ही रूप हैं।उसमें चुनाव नहीं करना है।एक को चुनकर दूसरे से संघर्ष नहीं करना है। दोनों के पार जो है उसे जानना है।
 
चित्त की सीमा में कोई शांति नहीं है। चित्त स्वरुप से व्दन्व्द है। चित्त का न होजाना शांति में प्रवेश है। चित के पार हमारी वास्तविक सत्ता है।
 
यह चित्तातीत सत्ता <u>चुनाव रहित जागरण</u> से क्रमशः उद्घाटित होती है।
 
वह जो चित के प्रवाह को देख रहा है वही मैं हूँ। शुभ नहीं, अशुभ नहीं ---विचार नहीं,निर्विचार नहीं वरन् वह जो इनका दृष्टा है वही मैं हूँ। यह सत्य दीखेगा -- धैर्य से प्रतीक्षा करने पर उसका दीखना निश्चित है।
 
इस सत्य साक्षत् के लिए क्या 'ईच्छा शक्ति '(Will Power)का विकास करना होगा ? यह भी अपने पूछा है।
 
<u>नहीं।</u> ईच्छा शक्ति चित्त का ही रूप है वह मनुष्य की अहंता ही है। वही सत्य से -- जो है -- उससे हमें दूर किये है। उसे विकसित नहीं विसर्जित करना होता है। भक्तियोग ने इस विसर्जन को ही समर्पण कहा है।
 
'मैं' सत्य पर हावी नहीं होसकता हूँ। <u>कुछ जीतना नहीं है।</u> कुछ पाना नहीं है। वह दौड़ ही तो संसार है। विपरीत मिटना हैः अपने को खोना है।
 
'मैं' (अहम् )खोते ही 'मैं' (ब्रम्ह) मिल जाता है। बूंद अपने को खोते ही सागर को पालेती है।
 
:xxx
 
मैं आनंद में हूँ। सबको मेरा प्रेम और प्रणाम कहें।
 
रजनीश के प्रणाम
 
(प्रवास सेः<br>
आमला : २८ सित.१९६३)
 
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To --<br>
श्री राजेन्द्रनाथ त्रिपाठी,<br>
जीवन बीमा आफिसर्स ट्रेनिंग कॉलेज,<br>
स्टेशन रोड<br>
<u>नागपुर (महाराष्ट्र)</u><br>
NAGPUR (m.s.)
 
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;See also
:[[Letters to Rajendranath Tripathi ~ 02]] - The event of this letter.


[[category:Unpublished Hindi (hi:अप्रकाशित हिंदी)|Osho Letter 1963-09-28]]
[[Category:Manuscripts|Letter 1963-09-28]]
[[Category:Letterhead series|Osho Letter 1963-09-28]]
[[Category:Manuscript Letters (hi:पांडुलिपि पत्र)|Letter 1963-09-28]]
[[category:Unpublished Hindi (hi:अप्रकाशित हिंदी)|Letter 1963-09-28]]
[[Category:Letterhead series|Letter 1963-09-28]]
[[Category:Newly discovered since 1990|Letter 1963-09-28]]

Latest revision as of 04:04, 25 May 2022

Letterhead reads:

Acharya Rajneesh (oriented vertically)
115, Napier Town, Jabalpur (M.P.) (oriented normally)

It is dated the afternoon of 28th September 1963 in Jabalpur and signed with "Rajneesh ke pranaam". It is not known to have been previously published.

The recipient is Rajendranath Tripathi, who worked for the Life Insurance Corp of India in Nagpur, then transferred to Bombay. It is one of four letters known to have been written to him.

The envelope belonging to the letter is underneath.

Other letters to RN Tripathi:

Letter written on 12 May 1964
Letter written on 10 Jan 1964
Letter written on 3 Sep 1963

आचार्य रजनीश

११५, नेपियर टाउन,
जबलपुर (म. प्र:)


श्री राजेन्द्रनाथ त्रिपाठी को,

प्रिय आत्मन्,
स्नेह। आपका पत्र मिले देर होगई है। मैं इस बीच निरंतर बाहर था, इसलिए। साधना चल रही है यह जानकर प्रसन्न हूँ। चित्तवृतियों के संबंध में पूछा है। उनके साथ कुछ करना नहीं है केवल उनके प्रति जागना है। शुभ के प्रति भी, अशुभ के प्रति भी। शुभ-अशुभ दोनों ही चित्तके ही रूप हैं।उसमें चुनाव नहीं करना है।एक को चुनकर दूसरे से संघर्ष नहीं करना है। दोनों के पार जो है उसे जानना है।

चित्त की सीमा में कोई शांति नहीं है। चित्त स्वरुप से व्दन्व्द है। चित्त का न होजाना शांति में प्रवेश है। चित के पार हमारी वास्तविक सत्ता है।

यह चित्तातीत सत्ता चुनाव रहित जागरण से क्रमशः उद्घाटित होती है।

वह जो चित के प्रवाह को देख रहा है वही मैं हूँ। शुभ नहीं, अशुभ नहीं ---विचार नहीं,निर्विचार नहीं वरन् वह जो इनका दृष्टा है वही मैं हूँ। यह सत्य दीखेगा -- धैर्य से प्रतीक्षा करने पर उसका दीखना निश्चित है।

इस सत्य साक्षत् के लिए क्या 'ईच्छा शक्ति '(Will Power)का विकास करना होगा ? यह भी अपने पूछा है।

नहीं। ईच्छा शक्ति चित्त का ही रूप है वह मनुष्य की अहंता ही है। वही सत्य से -- जो है -- उससे हमें दूर किये है। उसे विकसित नहीं विसर्जित करना होता है। भक्तियोग ने इस विसर्जन को ही समर्पण कहा है।

'मैं' सत्य पर हावी नहीं होसकता हूँ। कुछ जीतना नहीं है। कुछ पाना नहीं है। वह दौड़ ही तो संसार है। विपरीत मिटना हैः अपने को खोना है।

'मैं' (अहम् )खोते ही 'मैं' (ब्रम्ह) मिल जाता है। बूंद अपने को खोते ही सागर को पालेती है।

xxx

मैं आनंद में हूँ। सबको मेरा प्रेम और प्रणाम कहें।

रजनीश के प्रणाम

(प्रवास सेः
आमला : २८ सित.१९६३)

To --
श्री राजेन्द्रनाथ त्रिपाठी,
जीवन बीमा आफिसर्स ट्रेनिंग कॉलेज,
स्टेशन रोड
नागपुर (महाराष्ट्र)
NAGPUR (m.s.)


See also
Letters to Rajendranath Tripathi ~ 02 - The event of this letter.